भाग्य के बारे में तमाम तरह की बातें कही जाती है, किसी को लगता है विधाता ने हमारा भाग्य पहले से ही लिखा है? अतः जो होता है उसी की मर्जी से होता है ऐसे में सवाल है आखिर ये भाग्य क्या है? आज हम इसी पर चर्चा करेंगे।
भाग्य की पहेली ऐसी है जो सुलझने की बजाय और उलझने लग जाती है आमतौर पर जो इन्सान जितना अधिक इश्वर और धर्म पर विश्वास रखता है, उतना उसे किस्मत, भाग्य जैसे शब्दों पर गहरा विश्वास होता है।
वहीँ वे लोग जो खुद को पढ़ा लिखा या फिर नास्तिक मानते हैं उन्हें लगता है कर्म ही हमारा भाग्य बनाते हैं, जैसा हम करते हैं वैसा ही हमारा भाग्य बन जाता है।
तो चलिए जरा लॉजिक के आधार पर इस विषय पर चर्चा करते हैं, जी हाँ इस लेख को ध्यान से पढने के बाद आपके भाग्य के पर जो विचार हों आप बेझिझक whatsapp नम्बर 8512820608 पर सांझा कर सकते हैं हम आपसे सम्पर्क करेंगे।
भाग्य क्या है? What is Destniy in Hindi
मनुष्य को मिली सभी वस्तुएं जिसमें उसका कोई नियन्त्रण नहीं, महज संयोग मात्र है उसे भाग्य या डेस्टिनी कह कर सम्बोधित किया जाता है।
मनुष्य का शरीर, जन्म-मृत्यु, उसका धर्म, भाषा, रंग रूप, समबन्ध ये सब किस्मत की बात है क्योंकि इनपर उसका कोई नियन्त्रण तो होता नहीं।
और इसी विषय पर अध्यात्म कहता है की संसार में मौजूद सभी भौतिक पदार्थ मनुष्य को उसके भाग्य से मिले हैं। अर्थात वे सब जो इन्सान देख सकता है, महसूस कर सकता है फिर चाहे वो वस्तु हो या व्यक्ति ये सभी संयोग मात्र हैं।
क्योंकि जो कुछ भी प्राकृतिक अर्थात भौतिक है फिर चाहे कोई वस्तु हो या फिर व्यक्ति, वो कैसे मिलेगा, कब मिलेगा और कब मिटेगा इसपर आपका कोई अधिकार नहीं होता। अतः हम कह सकते हैं की हमारा ये शरीर और ये हमें दिखाई देती पूरी दुनिया सब भाग्य है।
अब यहाँ पर सवाल आ सकता है की क्या वह सब कुछ जो हम प्लान बनाकर करते हैं वो भी भाग्य ही है? जी हाँ, वह भी भाग्य ही है, उदाहरण के लिए आप किसी से मिलने का प्लान बनाते हैं और उससे मिल लेते हैं तो ये भी किस्मत का ही खेल है।
जी हाँ, कैसे? देखिये, मिलने का प्लान किसने बनाया, बुद्धि ने, और बुद्धि को ये निर्देश किसने दिया मन ने, और मन में जो कुछ भी आता है वो इस संसार में जो कुछ हम देखते हैं, अनुभव करते हैं उसी से आता है।
तो अगर संसार में जो कुछ है हमारे नियन्त्रण में नहीं है, तो हमारे मन पर भी हमारा नियन्त्रण नहीं हो सकता न, मन में कब कौन से विचार आ जाये। ये तय नही होता। अतः हम कह सकते हैं की मन में से उठने वाला कोई भी विचार भाग्य ही है, जो कुछ हम देखते हैं, सुनते हैं, यहाँ तक की करते हैं वो सब भाग्य है।
अब जब प्रश्न आता है सब कुछ ही भाग्य का खेल है तो आखिर क्या है जो भाग्य के अधीन नहीं है, क्या है जो भाग्य से परे है।
भाग्य क्या नहीं है?
वह जिस पर कर्मफल का सिद्धांत लागू नहीं होता, मात्र उसे भाग्य नहीं कहा जा सकता। प्रकृति में सबकुछ कार्य-कारण के सिद्धांत पर काम होता है।
हवा में कोई गेंद उछाली गई तो निश्चित है अब वह नीचे आएगी, क्योंकि उसके पीछे गुरुत्वाकर्षण बल नामक कारण मौजूद है, इसी तरह हर वो काम जो हम करते हैं उसके पीछे कारण होता है अतः उसका परिणाम भी हमें भुगतना पड़ता है।
उदाहरण के लिए यदि चोर चोरी करे तो निश्चित है अब उसे इसका दंड भी मिलेगा तो ये कर्मफल का सिद्धांत है जिसमें जो पीछे घटा होता है उसका सम्बन्ध आगे घटने वाली घटना से होता है। इसलिए कहा गया की जो तुम आज करोगे कल आपका भाग्य बन जायेगा।
अतः जो कार्य-कारण के सिद्धांत से बाहर है, वह जिसके पीछे कोई कारण नहीं है, बस हो रहा है मात्र वह भाग्य से परे है। अतः संक्षेप में कहें तो जिस कर्म के पीछे कोई वजह नहीं होती मात्र उसे भाग्य के दायरे में नहीं रखा जाता।
उदाहरण के लिए दो परिस्थियाँ हैं आप किसी इंसान से मिलने गए क्योंकि आपको उससे कुछ चाहिए था, दूसरा आप रास्ते पर चल रहे थे और अचानक आपको वही इंसान मिल गया। तो इन दोनों ही स्तिथियों को हम भाग्य कहेंगे।
पर तीसरी परिस्तिथि भी आती है जब आप कहते हैं उस इन्सान से मिलना है बस मुझे, उससे रुपया पैसा या कुछ और चाहिए नहीं। तो मात्र इस बेवजह वाली स्तिथि को हम कहेंगे यह भाग्य से बाहर की बात है, अब कोई आपको मिलने से रोक नहीं पायेगा न ही आपको डरा पायेगा।
क्योंकि आपके पास कोई वजह ही नहीं है, क्योंकि आपके भीतर कुछ पाने का लालच होता, तो कोई आपको रोक लेता। पर अब कोई वजह ही नहीं है, तो दूसरे तो क्या आप भी अपना रास्ता नही रोक पाओगे।
भाग्य से कैसे जीतें?
भाग्य से मात्र वही जीत पाता है जो कर्म-कारण के खेल से बाहर निकल आता है, जब वह अकारण ऐसे कर्म करने लगता है जिसमें उसका सीधे तौर पर कोई लाभ नही होता। पर फिर भी उस काम को करने का उसने फैसला ले लिया है।
उदाहरण के लिए एक नदी है जो गंदगी की वजह से अपवित्र हो चुकी है, अब आप जानते हैं की नदी का साफ़ होना कितना जरूरी है, पर साथ ही आपको ये भी मालूम है की इस सफाई के काम को करने में खूब समय और उर्जा लगेगा और बदले में मुझे कोई निजी लाभ भी नही होगा।
पर यह जानने के बाद भी बेवजह अर्थात कुछ पाने की इच्छा रखे बिना आप इस महान काम को करना शुरू कर देते हैं, तो अब आप भाग्य से जीत चुके हैं। क्योंकि आपने कर्म अपने लिए नहीं किया इसलिए इसका परिणाम भी आपको नहीं भुगतना पड़ेगा।
अन्यथा वह इंसान जो अभी कुछ पाने की इच्छा से ही कर्म कर रहा है, वो अभी भाग्य के भीतर ही जीवन जी रहा है, क्योंकि वो जो भी करेगा उसका परिणाम भी उसे मिलेगा।
प्रारब्ध और पुरुसार्थ क्या सही है?
प्रारब्ध अर्थात जो पहले से ही भाग्य में लिखा हुआ है, जैसे जीना मरना, दुख सुख, जाति, घर इत्यादि। वहीँ पुरुषार्थ से आशय जीते जी अपना कर्तव्य निभाने से है। तो अब सवाल है भाग्य के भरोसे बैठे रहें या फिर जो गलत है उसके खिलाफ जितना सम्भव हो सकें उतना प्रयास करें?
जवाब है दोनों ही व्यर्थ हैं। न तो ये कहना ठीक है की जो है सब भाग्य के अधीन है और न ही ये ठीक है की जो कुछ भी गलत हो रहा है उस स्तिथि को मैं ठीक करूंगा। क्योंकि दोनों ही स्तिथि में भीतर बैठा अहंकार है जो निर्धारित कर रहा है की क्या ठीक है क्या नहीं।
अहंकार यानि अहम भाव जो कुछ करेगा उसे चैन तो मिलेगा नहीं, इसलिए अहंकार को त्यागर जो सच्चाई को अपना लक्ष्य बना लेता है फिर जो कुछ वह जीवन में करता है वह शुभ ही होता है।
इंसान का भाग्य कौन लिखता है?
इंसान के जीवन में मौजूद दुःख, सुख, अच्छा बुरा सब उसके अतीत के कर्मों का नतीजा होते हैं। अतः किसी मनुष्य का भाग्य क्या होगा यह उसके वर्तमान कर्मों को देखकर पता किया जा सकता है। चूँकि मनुष्य के पास चुनाव की शक्ति है वह अच्छे/बुरे का निर्णय कर सकता है।
अतः हम कह सकते हैं इंसान का भाग्य लिखने का अधिकार स्वयं व्यक्ति के पास होता है। कोई भगवान या इश्वर आपके भाग्य का निर्माण नहीं करता, अगर आप परेशान हैं, दुखों में घिरे हुए हैं तो सही जिन्दगी जीने का फैसला कीजिये निश्चित रूप से आने वाला समय आपके लिए बेहतरीन होगा।
मनुष्य का भाग्य कब बदलता है?
जब मनुष्य अपनी स्तिथि के प्रति ईमानदार हो जाये जब उसे मालूम हो जाये की मेरी हकीकत क्या है,मेरे भीतर कितना डर, कितनी बेचैनी, कितना लालच, कितना छल कपट है और अपने भीतर की इस बुराई को ठीक करने की जिम्मेदारी लेने का साहस उसके भीतर होता है तभी उसका भाग्य बदल पाता है।
उदाहरण के लिए एक व्यक्ति जो पैसे का लालची है जिस वजह से उसे पैसों के खोने का डर तथा और कमाने का लालच उसे तमाम तरह के दुःख दिए जा रहा है।
तो अपनी इस सच्चाई को जानकर जब तक वह लालच खत्म करने का फैसला नही ले लेता उसका भाग्य नहीं बदल सकता। इसी तरह एक बेहोश इंसान अपना भाग्य तब तक नही बदल सकता जब तक वह बेहोशी छोड़कर होश में जीने का फैसला न लें लें।
भाग्य क्या है गीता के अनुसार
गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन को कहते हैं की हे पार्थ मात्र कर्म पर तुम्हारा अधिकार है, अतः बिना इस बात का चिंतन किये की कर्म परिणाम क्या होगा। तुम अपना कर्म करते रहो। यहाँ समझना जरूरी है की कर्म से आशय किसी ऐसे जरूरी काम से है जिसे करना ही इस समय आपका धर्म हो कर्तव्य है।
श्री कृष्ण अर्जुन को बताते हैं की इस समय धर्म और अधर्म की लड़ाई में तुम्हारा एकमात्र धर्म अधर्मियों के खिलाफ युद्ध करना है, परिणाम चाहे जो कुछ हो तुम्हें हार मिले या जीत इससे कोई फर्क नही पड़ता।
स्वधर्म अर्थात सही कर्म करने का यही सबसे बड़ा लाभ होता है की आपको चिंता नही करनी पड़ती भविष्य में इसका फल क्या होगा, आपका अच्छा कर्म ही आपको उसी समय अच्छा इंसान बना देता है।
किस्मत में जो लिखा है वही मिलेगा।
इस वाक्य का सीधा अर्थ है की प्रकृति में जो कुछ आपके नियंत्रण में नहीं है उसकी तरफ ध्यान मत दो, क्योंकि वो तो होता रहेगा, आपकी मृत्यु का समय, बारिश का समय और किसी अन्होनी को होने से भला कौन टाल सकता है? अतः उस दिशा में ध्यान देना व्यर्थ है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं की कुछ भी आपके नियंत्रण में नहीं है।
आपका बाहरी दुनिया पर नियन्त्रण भले न हो पर खुद पर नियन्त्रण जरुर हो सकता है, आप कहाँ जाते हैं, किनकी संगती करते हैं, क्या खाते हैं, किन लोगों की बात सुनते हैं, क्या काम करते हैं, इन्हीं सब बातों से आपके जीवन में सुख या दुःख आता है। अतः इसलिए ज्ञानी जनों ने कहा की खुद को साध लो, जो मन पर जीत गया समझ लो उसने दुनिया जीत ली।
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अंतिम शब्द
तो साथियों इस पोस्ट को पढने के बाद भाग्य क्या है? इसे कैसे बदलें और इस विषय से जुडी कई अहम बातें हमने इस लेख में समझने का प्रयास किया। अगर यह लेख आपके लिए उपयोगी साबित हुआ है तो कृपया इस लेख को अधिक से अधिक सोशल मीडिया पर जरुर सांझा करें।