वेद, उपनिषद, गीता इत्यादि किसी शास्त्र या अध्यात्मिक ग्रन्थ का अध्ययन करने पर आप पाएंगे वहां पर चेतना शब्द का कई बार प्रयोग किया गया है? सवाल है यह चेतना क्या है? चेतना के विस्तार से क्या मतलब है? सटीक जवाब आप इस पेज पर पढेंगे।
मनुष्य की चेतना हर दम बदलती रहती है, कभी यह बेचैन रहती है तो कभी इसे शांति मिलती है, ज्ञानी लोग बोल गए हैं की चेतना मुक्ति की चाहत में हर क्षण, हर दम बदल रही है। तो वास्तव में यह चेतना क्या है? आप तभी समझेंगे जब आपको चेतना के विषय पर जानकारी होगी।
चेतना क्या है? चेतना की परिभाषा
चेतना का अर्थ मनुष्य की जाग्रति से है, अर्थात मन की वह अवस्था जब उसे अपने या संसार के होने का अहसास हो उसे चैतन्य व्यक्ति कहकर संबोधित किया जाता है। दूसरे शब्दों में आप चेतना को मन भी कह सकते हैं।
चेतना में सदैव दो इकाइयां विद्यमान रहती हैं, पहला सब्जेक्टिव दूसरा ऑब्जेक्टिव, जब आप कहते हैं मै हूँ, मुझे ये अनुभव हो रहे हैं, तो ये बात सब्जेक्टिव है।
पर जब आपको दुनिया में कोई वस्तु या व्यक्ति दिखाई देता है तो वो आपके लिए ऑब्जेक्ट हो गया। इस तरह मन खुद को और इस संसार को प्रथक यानि अलग अलग समझता है।
इसलिए फिर वह कभी सुरक्षा, कभी डर की वजह से इस संसार से खुद का बचाव करता है। चूँकि हम लोग मन से जीते हैं और मन से जीने वाले व्यक्ति के हर कार्य के पीछे एक भय छुपा होता है, यहाँ तक की व्यक्ति अगर किसी से प्रेम या मोह भी करता है तो उसमें भी डर की भावना छिपी रहती है।
अतः चेतना का दूसरा नाम भय कहा गया है
इसलिए संतों ने बार बार ये कहा की जियो ऐसे जिसमें दुनिया का अता पता ही न हो क्योंकि जितना अधिक मन को संसार की प्रतीति होगी वो उतना ही डरता है।
व्यक्ति की आँखें खुलते ही उसे इस संसार में समय का चक्र दिखाई देता है, उसे अहसास होता है कोई भी वस्तु या व्यक्ति ऐसा नहीं है जो समय के साथ गुजरता न हो, असल में वह खुद तो बना रहना चाहता है पर जब उसे बाहर ही बाहर सब परिवर्तनीय लगता है तो जाहिर है डर तो रहेगा ही।
दिव्य चेतना क्या है?
दिव्य चेतना से आशय चेतना की शुद्धि से है, अर्थात इन्सान की चेतना जब निर्मल, निर्भय यानि सब गुण दोषों के पार हो जाये उसे दिव्य चेतना कहकर संबोधित किया जाता है।
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कहते हैं पहला तल मनुष्य का सबसे निचले तल का मन होता है।
चेतना के शुद्ध होने पर व्यक्ति निर्विचार हो जाता है।
देखिये विचार से आशय है मस्तिष्क की गतिविधियों से, और मस्तिष्क भी शरीर का ही एक भाग है, अतः मस्तिष्क पर जो विचार आते हैं इसलिए ताकि उससे शरीर की सुरक्षा हो जाए या मन को किसी तरह का सुख मिल जाये।
लेकिन चेतना की उच्चतम यानि शुद्ध अवस्था में इंसान के मस्तिष्क से ख्याल नहीं उठते, क्योंकि तब आप मन से नहीं बल्कि अपने हृदय यानी आत्मा से जीवन जीते हैं।
दुसरे शब्दों में जब आपकी चेतना आपके शरीर से अधिक महत्व आत्मा को देकर आत्मस्थ हो जाती है तो चेतना के इस तल को दिव्य चेतना कहा जा सकता है।
इसलिए दिव्य चैतन्य व्यक्ति के मन में लालच, इर्ष्या, क्रोध नहीं रह जाता अतः फिर वह निर्भय हो जाता है! उसके मन में प्रेम होता है वह किसी से सम्बन्ध बनाता भी है तो इसलिए नहीं क्योंकि उसे कुछ लाभ हो जाये बल्कि इसलिए ताकि दुसरे की भलाई हो सके।
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आत्मा और चेतना में क्या अंतर होता है?
चैतन्य होना और आत्मस्थ होना दोनों अलग अलग बातें हैं, हालांकि चेतना में हमेशा यह सम्भावना रहती है की वो इतनी उंचाई प्राप्त करे की आत्मा में मिल जाए।
1.चेतना का दूसरा नाम मन है जबकि आत्मा मनुष्य का केंद्र है जिसे हृदय भी कहा जाता है।
2. जीवन की विभिन्न परिस्तिथियों के अनुसार चेतना निरंतर बदलती रहती है, पर आत्मा अविचल है, अपरिवर्तनीय है।
3. चैतन्य व्यक्ति जागृति के कारण देश दुनिया से अवगत हो सकता है, पर जागृत व्यक्ति में जब बोध आ जाये तो उसे आत्मस्थ व्यक्ति कहते है।
4. मन यानि चेतना कभी सुखी रहती है तो कभी बेचैन,उदासीन रहती है। लेकिन आत्मा पूर्ण है, आनंद ही उसका स्वभाव है!
5. हर व्यक्ति के जीवन के अनुसार चेतना का तल भी भिन्न भिन्न होता है, सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण यह सभी चेतना के तल पर ही आते हैं। परन्तु आत्मा को प्रक्रति के इन सभी गुण दोषों से बाहर है इसलिए आत्मा मन की सर्वोच्च अवस्था कही गयी है।
तो यह कुछ प्रमुख भिन्नताए हैं, आत्मा और चेतना में! पर याद रखें मनुष्य की चेतना में बहुत बहुत संभावनाएं होती हैं वो अनंत उंचाई प्राप्त कर सकती हैं।
पर जब उसकी चेतना किसी छोटी चीज या लोगों में ही केन्द्रित हो जाती है तो फिर चेतना का मुक्त होना कठिन हो जाता है!
आत्म चेतना क्या है? आध्यात्मिक चेतना क्या है?
चेतना की उच्चतम यानि शुद्धतम अवस्था को आत्म चेतना कहा जाता है, देखिये इन्सान के जीवन में चेतना एक बच्चे की भांति होती है, और यह चेतना सदैव बड़ा और बड़ा यानि अनंत होना चाहती है।
पर जब वह चेतना छोटी रहती है बन्धनों में फंस जाती है तो वह मुक्ति के लिए छटपटाती है इससे मन को बड़ा दुःख होता है, इसलिए इस बेचैन मन को शांति तक पहुँचाने के लिए चेतना के स्तर को ऊँचा उठाना होता है।
और एक समय बाद जब उस मन से लालच, इर्ष्या, द्वेष इत्यादि खत्म हो जाते हैं यानि इंसान का मन निर्मल हो जाता है तो मन आत्मा में विलीन हो जाता है।
अर्थात अब उसकी चेतना या मन शरीर की इच्छाओं पर नहीं बल्कि आत्मा की मर्जी से चलता है! दुनिया में आत्मस्थ जीवन जीने वाले विरले ही होते हैं! क्योंकि आत्मा पर जीवन जीने के लिए कठिन मेहनत, प्रयास चाहिए होता है जो हर कोई नहीं करना चाहता!
चेतना का महत्व क्या है?
आपके मन यानि चेतना का जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है, क्योंकि मन खुश है, संसार उसे भा रहा है तो जाहिर है आप भी खुश दिखाई प्रतीत होंगे लेकिन इसके विपरीत अगर मन निराश या हताश है उसे किसी चीज़ की कमी खलती है रोजाना तो आप भी एक दुःखी चेहरा लेकर इस दुनिया में घूमते दिखाई देते हैं!
इसलिए ज्ञानी जन, संतों ने कहा है मन अर्थात इस चेतना को शुद्ध निर्मल करते चलो ताकि आपके अन्दर बैठा कपटीपन, लालच, इर्ष्या दूर हो सके! क्योंकि चेतना जितनी शुद्ध होगी जीवन में आनंद उतना ही बढ़ता है।
पर सामान्यतया हम अपनी चेतना अर्थात मन को अधिक महत्व नहीं देते, हम अपने शरीर को खूब महत्व देते हैं पर हमारे दोस्तों, परिवार और इस समाज की बातों से और रोजाना की क्रियाओं से हमारे मन पर कितना बुरा प्रभाव पड़ रहा है?
इस बारे में तनिक कुछ पल रूककर सोच भी नहीं पाते।
अतः जीवन में जो लोग परम आनंद पाना चाहते हैं, अपनी चिंताओं से मुक्त होना चाहते हैं उन्हें अपनी चेतना की स्तिथि (हालत) को समझकर उसे बेहतर बनाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।
चेतना के कितने प्रकार होते हैं?
चेतना की मुख्यतया चार अवस्थाएं होती हैं जिनमें जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय शामिल हैं! चेतना के ये चार तल मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार से सीधा तादात्म्य रखते हैं!
1. जागृत अवस्था:-
इस संसार में मनुष्य को अपनी इन्द्रियों जैसे आँख, कान, नाक इत्यादि से जो अनुभव होते हैं, और उन अनुभवों के आधार पर वह जो कर्म करता है उसे मन की जागृत अवस्था कहते हैं। मनुष्य दैनिक जीवन में विभिन्न तरह के कार्य करता है, और चेतना की इस जागृत अवस्था कहकर संबोधित किया जाता है।
2. स्वप्न अवस्था
मन में बैठा यह अहंकार अनुभवों को बेहद अधिक पसंद करता है, अनुभवों का लोभ उसमें इस कदर हावी रहता है की कई बार उसे जब बाहरी दुनिया में अनुभव नहीं मिलते तो फिर मन जो अनुभव पाना चाहता है उसे स्मृति यानि माइंड के माध्यम से आँख बंदकर कल्पनाओं के माध्यम से ले लेता है।
इसी को स्वप्नावस्था कहकर संबोधित किया गया है, आपने देखा होगा हम सो जाते हैं पर फिर भी स्वप्न में हमें कई तरह के अनुभव होते हैं।
कई बार हम हवाई यात्रा करते हैं, कभी प्रेमिका से बात करते हैं या कभी हमारी मृत्यु भी हो जाती है जो ये दर्शाता की हमारे अन्दर अनुभव पाने की ख्वाहिश बेहद ज्यादा है।
3. सुषुप्ति
चेतना की वह अवस्था जिसमें व्यक्ति को अपने होने अर्थात अहम् के होने भर से आनंद मिल जाता है, इस अवस्था में आनंद खूब होता है ऐसे मानो की व्यक्ति को मुक्ति मिले बिना ही समाधि मिल गई हो, और यह आनंद आत्मा के बेहद निकट होता है!
सुषुप्ति में लेकिन जो आनंद होता है वो बस थोड़े समय के लिए होता है देखा है कभी आप मात्र 2 घंटे के लिए सोते हो और आप कहते हो बड़ी प्यारी नींद आई दिमाग हल्का हो गया है।
और साथ ही सुषुप्ति की यह अवस्था आपको सन्देश देती है की दिन भर जिस तरह आप जीवन जीते हो उसमें बदलाव की जरूरत है। जीवन में आनंद आ सकता है, जीवन सहज हो सकता है!
4. तुरीय अवस्था
मन की वह अवस्था जो जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति से श्रेष्ट हो उसे तुरीय अवस्था कहा जाता है, हालाँकि इसे अवस्था नहीं कहते क्योंकि तुरीय सिर्फ विशुद्ध चेतना मात्र है,जब चेतना बिलकुल स्वच्छ और शुद्ध हो जाती है यानी आत्मस्थ हो जाती है तो तुरीय हो जाती है!
और जो व्यक्ति इस अवस्था में जीवन जीता है उसका मन सब गुण दोषों से पार होता है, उसके हृदय में प्रेम होता है, अतः अपनी चेतना को इस स्तर तक पहुंचाना ही मनुष्य का लक्ष्य होना चाहिये!
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« मुक्ति क्या है| मुक्ति क्यों जरूरी है?
अंतिम शब्द
तो साथियों इस लेख को पढने के पश्चात चेतना क्या है? और दिव्य चेतना, आत्म चेतना जैसे विषयों पर जानकारी मिल गई होगी, अगर इस लेख को पढ़कर जीवन में कुछ बोध हासिल हुआ है तो कृपया इस लेख को सोशल मीडिया पर साँझा करना तो बनता है।