धर्म क्या है| जानें महत्व और सरल परिभाषा

हमें अक्सर ईश्वर की पूजा करने उनके आगे सर झुकाने को कहा जाता है। पर वास्तव में धर्म क्या है? इस बात को न तो हमारे माता पिता, और न ही कोई स्कूल या शिक्षण संस्थान स्पष्ट तौर पर समझाते हैं।

धर्म क्या है

धर्म कैसे हमारी समस्याओं को खत्म कर सकता है? ये प्रश्न अगर कभी किसी इंसान के मन में आता भी है तो फिर उसे इनका सीधा और सरल जावाब नहीं मिल पाता, हालाँकि धर्म के विषय को अनेक धार्मिक गुरुओं ने भिन्न भिन्न तरीकों को समझाने की कोशिश की है!

पर आज हम धर्म का सटीक और सही मतलब इस लेख में समझेंगे, अतः ध्यानपूर्वक इस लेख को पढ़ें ये लेख आपके जीवन को नयी दृष्टि देने में मददगार साबित होगा!

धर्म क्या है| धर्म की परिभाषा

धर्म का सबसे आम और प्रचलित अर्थ है धारणा करना, माने जो धारण करने के काबिल है उसे अपनाना इसी बात को संस्कृत में धारयति इति धर्मः भी कह देते हैं।

पर मूल सवाल ये है की आखिर क्या है जो धारण करने योग्य है? इसे यदि हम समझ गए तो हम जान लेंगे की धर्म वास्तव में क्या है?

देखिये यदि आप अपने जीवन को देखें तो आप पाएंगे आपने कई चीज़ें धारण की हुई हैं, और उन धारणाओं को सत्य मानकर आप जी रहे हैं। एक पुरुष स्वयं को भाई, बाप, बेटा कहकर पुकारता है।

वहीँ एक नारी स्वयं को कभी पत्नी, बेटी, भाभी इत्यादि मानकर कर्म करती है। लेकिन इन सभी धारणाओं के कारण हम अपनी पहली धारणा को भूल जाते हैं।

वो धारणा अंतिम है और पहली भी है? विचार करेंगे तो आप पाएंगे की वो कुछ और नहीं इन्सान की अहम वृति है। यानी जन्म के बाद से ही इन्सान का “मैं हूँ” कहना ही उसकी पहली धारणा है।

और इसी मैं को शास्त्रों में कभी अहंकार, कभी अहम कहकर सम्बोधित किया गया है, और धर्म की स्थापना भी इसी मैं को ध्यान में रखकर की जाती है।

यह कहा जा सकता है हमारे भीतर यदि मैं भाव न रहे तो हमें धर्म की कोई जरूरत नहीं। पर चूँकि हम मैं कहते रहते हैं हम अहम भाव में जीते हैं और कहते हैं की ये मैं हूँ, ये तू है, ये मेरा ये तेरा।

तो इसी मैं द्वारा जो पूरा विभाजन किया गया है उसी अहम का इलाज करने के लिए और मनुष्य को शांति तक पहुंचाने में धर्म अहम भूमिका निभाता है।

धर्म का उद्देश्य क्या है?

मनुष्य के अहंकार को मिटाकर उसे सत्य में स्थापित करना ही धर्म का एकमात्र उद्देश्य है।

पर ये बात हमने जो एक पंक्ति में कही है, इसे अपनाना कितना कठिन है ये आप इस बात से समझ सकते हैं की मनुष्य को कोई व्यक्ति सच बता दे तो उसे कितना बुरा लगता है।

हम धारणाओं पर जीने वाले लोग हैं, हमें समाज ने, दुनिया ने बता दिया गया है की तुम पैदा हुए तो ये काम तुम्हें करने पड़ेंगे, ऐसे तुम्हें जीना होगा।

पर जब कोई ऐसा आता है जो कहता है की आपका जन्म किसी मान्यता पर विश्वास करके जीने के लिए नहीं हुआ है। इन्हीं झूठी मान्यताओं पर चलकर ही तो तुम्हें दुःख मिला है।

आपका जन्म सच्चाई जानने और जीने के लिए मिला हुआ है? सच्चाई क्यों जाननी है? सच इसलिए जानना है ताकि झूठ पर जरा विश्वास कम हो, जिन चीजों को अपना माना था वो अपनी है ही नहीं ये पता हो।

पर चूँकि अहंकार को सच्चाई रास नहीं आती वो झूठ में ही जीना पसंद करता है यही कारण है की एक व्यक्ति जो खुद को धार्मिक बोलता है वो भी गहरी अशांति में, परेशानी में जीता है।

मात्र वो व्यक्ति जिसने जान लिया की मेरे दुख के कारण कोई और नहीं बल्कि मैं यानी मेरा अहंकार हूँ।

जान लीजियेगा वो व्यक्ति ज्ञानी हो गया है, वो अब मन के चलाए नहीं अपितु सच के चलाए जीवन जियेगा। जहाँ कहीं सत्य उसे मालूम हो जाए की वो खट से हाथ जोड़ लेगा।

और मन उसका सही काम को करने में चाहे कितना डराए, ललचाये वो मन की नहीं सुनेगा। और चुपचाप सही कर्म में डूब जायेगा।

ऐसे व्यक्ति के जीवन में फिर असीम शांति रहती है, मन में प्रेम और करुणा का भाव रहता है।

गीता के अनुसार धर्म क्या है?

धर्म क्या है गीता के अनुसार

भगवदगीता के 18वें अध्याय के 66वें श्लोक में भगवान कृष्ण कहते हैं-

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः

अनुवाद: हे पार्थ। सब धर्मों का आश्रय छोड़ तू मेरी शरण में आजा मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा। तुम्हें किसी तरह का शोक करने की अवश्यकता नहीं।

ध्यान से समझें तो आप पाएंगे की कृष्ण अर्जुन को प्रेमपूर्वक वही बात कह रहे हैं जो एक आम मनुष्य सोचता है।

एक आम इन्सान की धारणा यही होती है न की पिता की, पति की, परिवार की सेवा करना ही उसका धर्म है।

सुबह उठकर नित्य पूजा करना, बड़ों की बात को मानना इत्यादि यही बातें तो धर्म हैं। और कमाल की बात ये है की आज से हजारों वर्ष पूर्व पहले भी इन्सान इन्हीं बातों को धर्म मानता था।

अधर्म और धर्म की लड़ाई हो रही है और भगवान कृष्ण देख रहे हैं की अर्जुन मोह और पुराने संस्कारों की वजह से सच्चाई से दूर भाग रहा है वो ये जानते हुए की मेरे अपने ही अधर्मी है वह इस सच को अनदेखा कर रहा है।

तो फिर भगवान कृष्ण को कहना पड़ा की अर्जुन सब धारणाओं से मुक्त होकर अर्थात सब धर्मों का त्याग करके तू तो मेरी शरण में यानी सच्चाई की तरफ आ जा तेरा कल्याण होगा।

अतः संक्षेप में कहें तो गीता हमें संदेश देती है की सच्चाई पर चलना ही मनुष्य का एकमात्र धर्म है।

पर दुर्भाग्य से गीता में कही गई ये अनमोल बात आज भी लोगों के कानों तक शायद पहुंची नहीं, शायद आज भी हम भगवान कृष्ण की बातों को अपने दिल में वो स्थान नहीं दे पाए जिसके वो अधिकारी थे।

इस बात का सबसे बड़ा प्रूफ ये है की आज भी हमारे लिए धर्म बस पूजा पाठ और मान्यताओं और परम्पराओं को आगे बढाने का नाम रह चुका है।

पर जिस व्यक्ति को वाकई कृष्ण से प्रेम होगा वो सच्चाई के मार्ग पर चलेगा झूठी मान्यताओं को, झूठी परम्पराओं पर कोई विश्वास नहीं करेगा। और यही धर्म की सबसे बड़ी सीख है।

मनुष्य का धर्म क्या है?

मनुष्य का प्रथम और एकमात्र धर्म अहम भाव से मुक्ति पाना होना चाहिए! और वो मुक्ति तभी सम्भव है जब मनुष्य यह जानें की सत्य क्या है? सच तो ये है मनुष्य अपने अहंकार को सच मानता है!

और अपने मन के कहने पर वह जीवन में उन चीज़ों के साथ अपने सम्बन्ध बनाता है जो चीज़ें उसके दुःख का कारण बनती हैं।

अतः उसी मन को सच्चाई तक ले जाना उसी डरपोक और लालची मन को निर्भीक और प्रेमपूर्ण बनाना ही मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है।

संक्षेप में कहें तो अपने मन को निर्मल करना ही मनुष्य का एकमात्र धर्म है। भगवान, मन्दिर और तमाम तरह के धार्मिक प्रतीक हमें अपने लक्ष्य तक पहुँचने में मदद करती हैं।

धर्म का महत्व | जानें धर्म की उपयोगिता

एक ऊँचा श्रेष्ट जीवन जीने के लिए धर्म बेहद आवश्यक है, स्वामी विवेकानंद, संत कबीर, महात्मा गांधी जैसे अनेक महापुरुषों में एक बात सांझी थी की वह सभी धार्मिक थे।

पर चूँकि हम धर्म को महज मूर्ती पूजा और अनेक तरह की मान्यताओं के रूप में देखते हैं! अतः धर्म जो उंची से बात मनुष्य को सिखा सकता है उससे हम वंचित हो जाते हैं।

देखिये बिलकुल भी आवश्यक नहीं की धर्म को जाने बिना मनुष्य जी नहीं सकता, जिस तरह जंगल में एक जानवर अपने सोने खाने पीने और दैनिक क्रियाओं को करने के लिए उसे धर्म की आवश्यकता नहीं पड़ती।

इसी प्रकार इस दुनिया में जीवन यापन करने के लिए व्यक्ति का धार्मिक होना बिलकुल भी जरूरी नहीं है।

अब यहाँ प्रश्न आता है तो फिर धर्म का महत्व क्या है?

धर्म की सबसे बड़ी खूबी यह है की यह इन्सान को इन्सान बनाता है, जी हाँ इन्सान माने ऐसा जीव जिसके भीतर प्रेम हो, करुणा हो, जिसे सच्चाई और शांति से लगाव हो।

पर बताइए अगर धर्म ही नहीं रहा तो ये चीज़ें कौन सिखाएगा। प्रेम न तो विज्ञान की कोई मशीन मनुष्य को सिखा सकती है और न ही संविधान को पढ़कर, जीवन में प्रेम आएगा।

प्रेम तो मात्र धर्म ही सिखा सकता है, कोई बेचारा घायल पड़ा हो सडक में कौन सी मशीन उसकी मदद करेगी। मात्र धर्म ही हमें सिखाता है की कमजोर की मदद करो, गरीबों की सहायता करो।

अतः जितना जरूरी है विज्ञान का प्रगति करना उतना ही जरूरी है व्यक्ति का धार्मिक होना अन्यथा इंसान अगर धर्म से दूर हो जायेगा तो मन में जो डर, लालच आता है वही उसके असीम दुःख का कारण बन जाएगा।

क्योंकि प्राकृतिक रूप से हम वासनाओं के पुतले होते हैं जन्म से ही हम लगातार कुछ नया खोजते रहते हैं, हम यहाँ जाते हैं वहां जाते हैं ताकि मन को सुकून मिले पर कुछ भी करके मन शांत नहीं होता।

इसी मन को सच के करीब ले जाने और सत्य में जीने के लिए धार्मिक होना बेहद जरूरी है।

प्रायः हमारी स्कूल, कॉलेज की शिक्षा व्यस्था से वह धार्मिक ज्ञान नदारत होता है। पर उपनिषदों और भगवदगीता को पढने पर आपको वास्तव में धर्म का मतलब समझ में आयगा।

लोग धर्म के रास्ते पर क्यों नहीं चल पाते हैं?

श्रीमद्भगवद गीता का अध्ययन करने पर हम पाते हैं की धर्म के रास्ते पर चलने के लिए जीवन बदलना पड़ता है।

हम वो लोग हैं जो छोटी छोटी बातों पर अपना स्वार्थ सिद्ध करने का प्रयास करते हैं, बेईमानी का जीवन जीते हैं हमारे लिए गीता को जीवन में लाना थोडा मुश्किल प्रतीत होता है।

जहाँ कृष्ण गीता में हमें निष्काम कर्म (बिना फल पाने की इच्छा के कर्म) करने के लिए कहते हैं, वहीँ जीवन में हम छोटा सा कार्य भी अपने फायदे के लिए ही करते हैं।

कृष्ण की बातें और धर्म युक्त जीवन जीकर हम अपने अनमोल जीवन को सार्थक कर सकते हैं!

पर चूँकि धर्म के मार्ग पर चलने वाली कठिनाइयों, चुनौतियों को झेल पाने का उनमें साहस नहीं होता अतः फिर लोग गीता के अमूल्य ज्ञान से वंचित रह जाते हैं!

क्या धर्म अन्धविश्वास है?

अगर व्यक्ति के लिए बस धर्म का मतलब पूजा अर्चना, मान्यता बन जाए तो अन्धविश्वास है। परन्तु अगर व्यक्ति किसी को पूजने से पूर्व उनके बारे में जानें, समझें और फिर उनको सर झुकाएं तो फिर यह अन्धविश्वास नहीं हो सकता।

उदहारण स्वरूप कृष्ण कौन, राम कौन और इनके जीवन से हम आम लोग क्या सीख सकते हैं, यह जानकार हम उन्हें पूजें तो इसे अन्धविश्वास नहीं कहा जा सकता।

देखिये कोई बेहद समझदार व्यक्ति होगा जिसने पहली बार नदी को मां कहकर उसके सामने सर झुकाया होगा, लेकिन जब लोग इस बात का अर्थ नहीं जानते की नदी को क्यों हमने माँ माना है? देवी देवता किस बात के प्रतीक है?

फिर वो नदी में सिर्फ पुरानी मान्यताओं के अनुसार पूजा पाठ करते हैं। तमाम तरह के रीति रिवाजों का पालन करते हैं जिससे नदी दूषित होती है।

तो बिना समझे बूझे किसी चीज का अनुकरण करना फिर वह अंधविश्वास कहलाता है।

धर्म क्या नहीं है?

धर्म को प्रायः दो दृष्टि से देखा जाता है!

पहला धर्म, अलग अलग तरह के हो सकते हैं, जैसे हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख,इसाई इत्यादि! और इन सभी धर्मों में आप पाएंगे कुछ विधियाँ, तौर तरीके हैं जो सभी अपनाते हैं।

जैसे निश्चित समय तक उपवास रख लेना, किसी जानवर की पूजा करना एक निश्चित तिथि के दिन पशुहत्या करना इत्यादि! इस तरह के धर्म का पालन करने पर ये विधियाँ, तौर तरीके हमें विरासत में दूसरों द्वारा मिले होते हैं।

विशेष बात यह है की आज की नयी पीढ़ी का इस तरह के धर्म से भरोसा उठ रहा है वे धर्म से दूर होते जा रहे हैं।

दूसरा धर्म को देखने का दूसरा तरीका यह है की जिस तरह सत्य मात्र एक होता है उसी तरह धर्म भी एक ही होता है, यानि यह धर्म किसी हिन्दू,मुस्लिम इत्यादि से सम्बंधित नहीं होता।

 और इस धर्म का किसी पंथ, समुदाय से कोई मतलब नहीं होता,इसे मतलब होता है सिर्फ उचित से, यानी धर्म को देखने का यह तरीका कहता है इन्सान चाहे जो भी हो इस पल, इस क्षण जो करना उसके लिए सबसे जरूरी, उचित है वही धर्म है।

जैसे कोई व्यक्ति कहता है की तुम्हारा अभी इस कार्य को करना ही धर्म है, इस संबंध में धर्म से तात्पर्य किसी विशेष जाति के लिए नहीं बल्कि उस व्यक्ति से है।

अंतिम शब्द

तो साथियों इस लेख को पढने के पश्चात धर्म क्या है? धर्म से हमें क्या सीख मिलती है? धर्म क्या होता है? धर्म क्या बिलकुल नहीं, आशा है इस लेख को पढ़कर धर्म को जान्ने में सरलता प्राप्त हुई होगी, लेख पसंद आये तो इसे शेयर करना मत भूलियेगा।

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