कर्म करो और फल की कामना मन से निकाल दो, क्या यही कर्मयोग है? या फिर कर्मयोग की परिभाषा और इसका अर्थ दूसरा है? आप तभी समझ पाएंगे जब आपको कर्मयोग क्या है? इसका सटीक और जमीनी अर्थ मालूम होगा।

अगर इंसान ने इस पृथ्वी में जन्म लिया है तो वह कर्म तो करेगा ही पर किस तरह के कर्म, कर्मयोग की श्रेणी में आते हैं यह पता होना बेहद आवश्यक है। अन्यथा इन्सान अपनी मर्जी से किसी भी कर्म में लिप्त हो जायेगा और फिर स्वयं को कर्मयोगी सिद्ध करेगा।
एक कर्मयोगी व्यक्ति का जीवन आम लोगों की तुलना में श्रेष्ट होता है, इसलिए गीता में स्वयं भगवान् कृष्ण कर्मयोगी होने पर बल दे रहे हैं। पर आम लोगों में कर्मयोगी होने की जो धारणा है वो लोगों द्वारा अपने मतलब के लिए निकाला गया एक विकृत अर्थ है!
आइये कर्मयोग के सिद्धांत को सरल और स्पष्ट शब्दों में समझते हैं!
कर्मयोग क्या है? कर्मयोग की परिभाषा
जब कर्म बिना निजी स्वार्थ ( मतलब) को पूरा करने के उद्देश्य से किया जाता है तो उसमें कर्ता भाव समाप्त हो जाता है यही कर्मयोग है। दूसरे शब्दों में जब ऊँचे (सबसे श्रेष्ट) लक्ष्य को बिना किसी परिणाम की आशा या उम्मीद के किया जाए यही कर्मयोग है।
कर्ता से आशय “मैं” यानी अहम् भाव से है! सामान्यतया हम जो भी कर्म करते हैं कहते हैं मैंने किया पर जब मन से यह कर्ता का भाव समाप्त होकर मनुष्य बिना कर्म फल की चिंता के सही कर्म करे इसे कर्मयोग कहा जा सकता है।
गीता में कृष्ण के समक्ष अर्जुन खड़े हैं और कह रहे हैं कर्म करना तो मनुष्य का स्वभाव है, नियति है पर तुम कर्म करो सिर्फ इस भाव से जैसे आप एक माध्यम हैं, करने वाला कोई और है।
अब ध्यान देने योग्य हैं कर्मयोगी होने से तात्पर्य यह नहीं की आप कोई भी कर्म में जुट जाए, नहीं कर्मयोगी वह है जो ऐसे कर्म का चुनाव करे जिसे करना उसका धर्म है अर्थात जो सबसे आवश्यक है।
अतः उस कार्य में डूब जाना बिना यह सोचे की इस कर्म से मुझे क्या लाभ या परिणाम मिलेगा! यही कर्मयोग की सीख है।
कर्मयोग कहता है जीवन में ऐसा लक्ष्य बनाओ जो सबसे श्रेष्ट यानी सबसे जरुरी हो, साथ ही अनन्त भी हो। अब उस कर्म में चूँकि आपको किसी परिणाम की आशा नहीं है तो फिर उस कर्म से आपको न सुख मिल सकता है न किसी तरह का दुःख!
कर्मयोगी कौन होता है?
वह व्यक्ति जो लाभ हानि और परिणाम की आशा के बिना जीवन में उस कार्य को करने का चुनाव करे जिसे करना उसका धर्म है, वह कर्मयोगी कहलाता है।
इस सम्बन्ध में दार्शनिक और अध्यात्मिक लेखक कृष्णमूर्ति से एक बार पूछा जाता है अन्य लोगों की तरह आप भी तो इतना ज्ञान दे रहे हैं, लगातार सीख दे रहे हैं कृष्णमूर्ती कहते हैं पर मेरे इस कार्य को करने के पीछे कुछ पाने का उद्देश्य नहीं है।
यानि करना सबकुछ जो उत्तम है, जरूरी है, श्रेष्ट है पर उस महान कार्य के बदले में कुछ पाने की जो इच्छा न रखे समझिएगा वही कर्मयोगी है।
समाज में चूँकि लोग गीता को रोजाना अध्ययन में शामिल करने की बजाय उससे दूरी बनाये रखते हैं, और कुछ लोग गीता पढ़ते भी हैं तो वे उन श्लोकों का सही अर्थ नहीं जान पाते।
अतः लोगों को कर्मयोगी होने की सिद्धांत ही मालूम नहीं हो पाता! इसलिए कर्मयोगी बेहद कम लोग होते हैं।
कर्मयोग की विशेषताएं क्या है?
कर्मयोग की विशेषताएं निम्नलिखित हैं!
#1. लक्ष्य से मुक्ति:-
एक कर्मयोगी क्योंकि श्रेष्ठ, और असम्भव प्रतीत होने वाला कार्य चुनता है। इस वजह से उसके कार्य के खत्म होने की समयसीमा, निश्चित अवधि नहीं होती। इसलिए लक्ष्य और परिणाम के पाने या न पाने से वह मुक्त हो जाता है।
#2. आशा से मुक्ति
आमतौर पर हम सांसारिक लोग जो भी कार्य करते हैं, हमारे मन में कुछ सुख पाने की उम्मीद भी जरुर होती है। पर जिस आवश्यक कार्य में कर्मयोगी डूबा हुआ है उससे उसे क्या मिलेगा? इस चीज से वह मुक्त हो जाता है इसलिए न वो आपको गहरे सुख में और न ही गहरे दुःख में दिखाई दे सकता है।
#3. वर्तमान में जीना
वे लोग जिन्हें भविष्य की चिंताएं, दुःख सताते हैं उन्हें कर्मयोग का सिद्धांत जरुर जानना चाहिए, एक कर्मयोगी में चूँकि भविष्य की आशाएं नहीं रहती! अतः वह जिस भी कार्य को करता है डूब कर करता है, इसलिए मन उसका तृप्त होता है, शांत रहता है क्योंकि आगे क्या होगा उसे सोचना नहीं पड़ता।
#4. कर्ता भाव नहीं रहता
जो कर्म कर रहा है वह भली-भाँती जानता है वो जिस कार्य को कर रहा है, वो बस एक माध्यम है तो फिर वह कार्य को न तो करने का श्रेय लेता है और न ही कार्य के सफल होने पर परिणाम देखकर खुश या चिंतित होता है।
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कर्मयोगी का कार्य सफल होता है की नहीं?
अब इन विशेषताओं को पढने के बाद मन में जाहिर है ये प्रश्न आना चाहिए की जिस इन्सान के कर्म के पीछे कोई कामना या इच्छा ही नहीं है तो फिर उसके कार्य करने में दम नहीं होगा।
तो देखिये सांसारिक व्यक्ति के लिए यह सोचना सही है क्योंकि वो जिस भी कार्य को जोर लगाकर करता है उसके पीछे एक इच्छा होती है।
कर्मयोगी के मन में वैसा उबाल नहीं आता जो समय के साथ शांत हो जाये, उसके मन में एक शीतल गर्मी रहती है। जो उसे लगातार उस कार्य में लगे रहने के लिए प्रेरित करती है, उदाहरण के तौर पर कृष्णमूर्ती ने कर्मयोगी होने का बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किया।
जिन्होंने अपने जीवन के 60 साल लगा दिए लोगों के जीवन को संवारने के लिए। इसी तरह कर्मयोगी को देखने पर बाहरी तौर पर आपको वह सामान्य व्यक्ति लगेगा।
लेकिन उसके विचार, उसके कार्य करने का लक्ष्य, इच्छाएं बिलकुल अलग होंगी, वो शांत,अविचल, स्थिर रहेगा जो सदैव अपने कर्म में परिणत रहेगा।
इसलिए कर्मयोगी को लम्बी रेस का घोडा कहा गया है, वर्तमान में वह दुःख नहीं पाता। क्योंकि उसे सुख की तलाश नहीं होती, भविष्य से भी उसे निराशा नही होती क्योंकि वह कोई फल की खोज में नहीं होता।
कर्मयोगी कैसे बनें?
कर्मयोगी बनने की विधि निम्नवत है!
1. सर्वप्रथम किसी श्रेष्ठ कार्य का चुनाव करें, अर्थात ऐसा कार्य जो न सिर्फ आपके लिए अपितु इस विश्व और समाज के लिए कल्याणकारी हो!
2. दूसरा, अब उस कार्य को करने के लिए पर्याप्त कौशल सीखिए, साथ ही उस कार्य को करने हेतु मन में साहस और दृढ़ संकल्पता लाइए! भले कार्य कितना ही कठिन और असम्भव प्रतीत हो उसे करने का चुनाव करें भले आपको सफलता मिले अथवा नहीं!
3. अब उस कर्म में अपने सभी संसाधन चाहे समय हो, पैसा हो, ज्ञान हो, को झोंक कर उस कार्य को पूरा करने की यथासंभव कोशिश कीजिये!
4. कार्य के फलस्वरूप लाभ हानि का विचार किये बिना, साथ ही उसका परिणाम क्या होगा! इसे सोचे बिना नित अपना कार्य करते रहें! आप एक कर्मयोगी बन जायेंगे!
उदाहरण स्वरूप आपके शहर या गाँव में बड़ी गंदगी है और साफ़ सफाई की सख्त आवश्यकता है, लेकिन कोई भी व्यक्ति या सरकार इस कार्य को गम्भीरता से लेकर इस कार्य को अंजाम नहीं दे रही है और आपको लगता है यह कार्य है जो खुद के लिए नहीं अपितु इस समाज और विश्व के लिए करना श्रेष्ट है!
तो अब आप इस कार्य को करने का बीड़ा उठा लेते हैं, अब इस कार्य को करने में भले आपको शर्म, झिझक हो आप इसे करने का साहस करते हैं और इस कार्य को पूरा करने में अपना समय, श्रम लगाने के साथ ही कुछ पैसा इत्यादि भी खर्च करना पडी तो वो भी आप कर रहे हैं!
और संभव है इतना करने के बाद भी सफाई पूरी तरह से न हो पर फिर भी आपने अपनी तरफ से भरसक प्रयत्न किया इमानदारी से, तो आप कर्मयोगी हुए क्योंकि आपके मन में ये आशा तो है ही नहीं, की इससे मेरा निजी लाभ होगा या नहीं, या ये काम पूरा होगा की नहीं बस आप उस कार्य में जुट गए हैं क्योंकि यह कर्म करना इस समय सर्वधिक महत्वपूर्ण है!
कर्मयोग के प्रकार
कर्मयोग के कोई प्रकार नहीं होते, हालांकि कर्म के विभिन्न प्रकार होते हैं, कर्मयोगी वह जो श्रेष्ट कार्य में खुद को समर्पित कर दे!
गीता के अनुसार कर्म क्या है?
गीता में श्री कृष्ण द्वारा 5 तरह के कर्मों का वर्णन किया गया है, इन पाँचों तरह के कर्मों को समझने के लिए हमें इस संसार और प्रकृति को समझना होगा!
1. अकर्म:- प्रकृति निरंतर गतिशील हैं इसमें कुछ चीजें मनुष्य के कर्म किये बिना भी चलती रहती हैं, जैसे हवा का बहना, पेड़ से पत्ते का गिरना साथ ही मनुष्य की धमनियों में जो खून बहता है, सांसे चलती है। ये प्रक्रति की व्यवस्था है इसमें मनुष्य का कोई योगदान नहीं होता अतः ऐसे कार्य जिनमें कर्ता न हो उन्हें अकर्म कहा जाता है।
2. सकाम कर्म :- जब मनुष्य किसी वस्तु या अपनी इच्छा को पाने के खातिर किसी तरह का कर्म करता है वह सकाम कर्म की श्रेणी में आता है, दैनिक जीवन में हम जो भी कार्य करते हैं। इसलिए ताकि कुछ भौतिक चीजें मिलें जिससे सुख मिले अधिकांश लोग पृथ्वी में सकाम कर्म ही करते हैं लेकिन श्री कृष्ण इस तरह के कर्मों का त्याग कर निष्काम कर्म के लिए बल दे रहे हैं!
3. निष्काम कर्म:- मन की पूर्णता की स्तिथि ही निष्काम कर्म के योग्य बनाती है, अर्थात जब मनुष्य स्वयं में सतुष्ट हो, आनन्दित हो उसे इस संसार से कुछ भोगने और सुख पाने की लालसा न हो तो यही अवस्था निष्काम कर्म कहलाती है। अर्थात आप सही कर्म करते तो हैं पर इस कर्म के बदले कुछ पाने या खुश होने की लालसा आपके मन में नहीं रहती।
4. विकर्म:- विकर्म से आशय ऐसे कर्मों से हैं जो तुम्हें बेहोशी में ही रहने के लिए मजबूर करे, उदाहरण के लिए एक शराबी कहे मुझे शांति और होश नहीं चाहिए मै जैसा हूँ वैसे ही रहने दो! तो जहाँ सकाम कर्म में आपके अन्दर यह आस होती है की कोई कर्म करूँ ताकि मेरा मन शांत हो जाये लेकिन जब आप अपनी खराब हालत में जीवन जीना ही स्वीकार करें समझ लीजियेगा ये विकर्म है!
5. निषिद्ध कर्म:- सामाजिक व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए जो कार्य निर्धारित किये जाते हैं उन कर्मों को करना ही निषिद्ध कर्म कहलाता है, सामजिक व्यस्था, वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यस्था इत्यादि और उनके बनाये गए नियमों को मानना ही निषिद्ध कर्म कहलाता है।
दुसरे शब्दों में कहें तो जिन कामों को हम नैतिकता कहकर मान लेते हैं या करते हैं उन्हें निषिद्ध कर्म कहा जाता है! हालाँकि अध्यात्म में और न ही गीता में इस तरह के कर्मों को विशेष महत्व दिया गया है।
अंतिम शब्द
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