क्या मित्रता बेशर्त होती है? Chapter 3 | Sambandh Book Summary

क्या मित्रता बेशर्त होती है: हम जिससे दोस्ती करते हैं, उससे हमारी कुछ न कुछ आस भी जरुर बंधी होती है। चाहे उससे सुख की आस हो, सुरक्षा की या फिर कोई अन्य जरूरत हो। आप इस बात को अपनी जिन्दगी में या फिर अपने आस पास निभाई जाने वाली मित्रता में देख सकते हैं। (क्या मित्रता बेशर्त होती है ~ अध्याय 3 सारांश)

क्या मित्रता बेशर्त होती है

पर क्या प्रेम में,मित्रता में आशा का होना उचित है? या फिर बिना किसी से उम्मीद बांधे दोस्ती करनी चाहिए? आचार्य जी समबन्ध नामक इस पुस्तक के तीसरे अध्याय में सहज शब्दों में हमें समझाने का प्रयास करते हैं।

मित्रता के रिश्ते में आशा का न है कोई स्थान

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी क्या मित्रता में आशा रखनी चाहिए?

आचार्य जी: बिल्कुल नहीं, आशा का अर्थ होता है अपेक्षा या किसी तरह की उम्मीद रखना, जब आप किसी से आशा रख लेते हैं वहां पर सच्ची मित्रता हो ही नहीं सकती, फिर वहां व्यापार हो जाता है।

आप सोचते हैं मित्र को मैंने 100 दिए बदले में ये भी मुझे देगा। या मैंने आज इसकी मदद की, कल ये मेरी मदद करेगा, अधिकतर हमारी मित्रता का दूसरा नाम स्वार्थ होता है और ये कारोबारी मित्रता होती है।

इसको आप प्रेम का नाम नहीं दे सकते, अगर वाकई प्रेम होगा अपने मित्र से तो कभी तुम किसी भी बात की आस रखोगे ही नहीं।

तुमने मेरे लिए ये काम नहीं किया तो समझ लेना दोस्ती खत्म, समझ लेना प्रेम कभी था ही नहीं,

तुमने दूसरी जाति के लड़की से शादी की, समझ लो घर से बाहर, यहाँ भी प्रेम गायब था।

और यही नहीं अधिकतर जो प्रेम के नाम पर आशिकों के मर्डर के किस्से आते हैं, ये सब प्रेम के नाम पर की गई बेवकूफियां हैं और कुछ नहीं, क्योंकि प्रेम भिखारी नहीं होता वो अपेक्षा नहीं रखता किसी से मांगता नहीं।

तो अगर किसी से भी सच्ची मित्रता करते हो तो, कभी भी उस शक्स से किसी भी तरह की आस मत रख लेना।

प्रेम, घृणा और नकली प्रेम

प्रश्नकर्ता: एक बार आपने कहा था हम जिससे जितना प्यार करते हैं, उतनी ही उससे घृणा भी करते हैं, और हमने क्लास में पढ़ा था काम वही करो जिससे तुम्हें प्रेम हो। अब ये तो बड़ी जटिल समस्या हो गई न क्या करना चाहिए?

आचार्य जी: पहले समझिये बात क्या कही गई थी, जब आपको यह कहा गया की प्रेम, घृणा के साथ आता है, तो यहाँ पर “हमारे प्रेम” यानी विकृत प्रेम की बात हो रही थी।

जिसे हम प्रेम का नाम दिए रहते हैं, वो प्रेम नहीं होता घृणा का छाया मात्र होता है! क्योंकि इसमें तुम जब कहते हो फलाने को प्यार तो बहुत करता हूँ पर उतना ही उस पर गुस्सा भी आता है।

तो इस तरह हमारे प्रेम में घृणा भी साथ-साथ चलती है, ये एक नकली प्रेम है ये प्रेम के नाम पर किसी तरह की जरूरत है। दुर्भाग्य से समाज में आपको प्रेम इसी तरह का देखने को मिलेगा।

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अंतिम शब्द

तो साथियों इस तरह आचार्य जी प्रेम, मित्रता, उम्मीद इन तीनों मूल विषयों पर स्पष्टता जाहिर करते हैं, अगर आप इस अध्याय ( क्या मित्रता बेशर्त होती है ) को पूरा पढ़ना चाहते हैं तो Amazon से आप यह पुस्तक ऑर्डर कर सकते हैं!

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