माया का खेल बड़ा निराला है, इस खेल से बाहर निकलना बड़ा मुश्किल है, जी हाँ एक तरफ जहाँ कबीर माया को पापिनी बता रहे हैं तो दूसरी तरफ इस संसार के लोग भी माया के बारे में अलग अलग बातें करते हैं पर वास्तव में माया क्या है? हमें पता नहीं होता।
माया इंसान को बड़ा लुभाती है, सुख देने के लिए इंसान को माया उसे इस दुनिया में तरह तरह के लोगों से या वस्तुओं से आकर्षित करती है।
कुछ बिरले लोग ही होते हैं जो माया की हकीकत को जानकार इससे बच निकलते हैं! अन्यथा म्रत्यु हो जाती है पर इंसान माया के जाल में फंसा रहकर मुक्त नहीं हो पाता।
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माया क्या है?
जो सच नहीं है, पर सच जैसा प्रतीत होता है वही माया कहलाती है, अर्थात वर्तमान में आपको कोई बात या स्तिथि एक दम सच दिखाई देती है, लेकिन कुछ समय बीतने के बाद आपको ज्ञात होता है जैसा मुझे लग रहा था, वैसा है नहीं यही माया कहलाती है।
माया के विषय में ऋषियों ने, संतों ने खूब चर्चा की है और लोगों को बार बार माया से सचेत होने के लिए कहा है! आइये देखते हैं शास्त्रों में माया के विषय पर क्या लिखा है?
“यह माया शक्ति तुच्छ, अज्ञान स्वरूप और मिथ्या है, परन्तु मूर्खों को यह सदैव वास्तविक प्रतीत होती है, इसलिए सुनिश्चित रूप से ‘यह कैसी है’, यह बताना संभव नहीं है।“ -(सर्वसार उपनिषद्, श्लोक १५)
तो इस श्लोक में ऋषि साफ़ साफ कह रहे हैं की माया आई कहाँ से, ये नहीं बताया जा सकता पर यह मनुष्य को किसी दुःख में, उलझाव में हेमेशा घेरे रखती है!
कबीर के अनुसार माया क्या है?
कबीर साहब कहते हैं माया-छाया एक सी बिरला जाने कोय, भगता के पीछे लगे सम्मुख भागे सोय|
आइये इसे एक उदाहरण के रूप में समझते हैं, 3 परिस्तिथियाँ हैं, सूर्य है, एक व्यक्ति है और उसकी छाया है।
यहाँ सूर्य से तात्पर्य सत्य से है, एक व्यक्ति जो जीवन में माया से दुखी होकर सत्य अर्थात सूर्य की तरफ बढ़ रहा है।
लेकिन वो पाता है जितना वह आगे बढ़ रहा है, छाया उसका पीछा किये जा रही है।
वो जरा ठहरता है और अब उस छाया को पकड़ने की चाह में वह सूर्य से यानी सच्चाई के रास्ते से वापस मुंह मोड़ लेता है और छाया को पकड़ने का प्रयास करता है।
लेकिन क्या छाया उसके हाथ आएगी?
यही कबीर साहब समझाने का प्रयास कर रहे हैं की माया असल में कुछ है नहीं, ठीक उसी तरह जैसे छाया कुछ नहीं होती बस शरीर का अन्धकार है!
लेकिन फिर भी यह माया मनुष्य को सच से दूर रखने के लिए उसे इस दुनिया में कुछ इस तरह लुभाती है उसे लगता है माया सच है! बेहद कम ऐसे लोग होते हैं जो माया के खेल को समझते हुए उसका न तो पीछा करते हैं और न ही उसके खेल से दुखी होते हैं।
बस यही छोटा और स्पस्ट अर्थ है कबीर साहब के शब्दों में माया के लिए, कबीर कहते हैं माया और छाया एकसमान है।
माया कितने प्रकार की होती है?
माया का रंग रूप आकार नहीं होता वह छाया के समान होती है जिसे न देखा जा सकता है न स्पर्श कर अनुभव किया जा सकता है।
अतः माया को विभिन्न इकाइयों में विभाजित नहीं किया जा सकता, हालाँकि जीवन की विभिन्न परिस्तिथियों के आधार पर माया का खेल निराला होता है कभी ख़ुशी देकर तो कभी ललचाकर वह मनुष्य को फंसाए रखती है।
माया का अस्तित्व भी तभी तक है जब तक व्यक्ति स्वयं को एक शरीर समझे हुए इस दुनिया में विभिन्न तरह के सुखों से आकर्षित हो रहा है!
यदि मनुष्य यह समझ जाये की जो आनंद शांति वो पाना चाहता है वो किसी भी भौतिक वस्तु या व्यक्ति या इस संसार से प्राप्त नहीं हो सकता ऐसे व्यक्ति पर माया का प्रभाव कम हो जाता है।
मोह और माया में अंतर?
मोह और माया दोनों भिन्न हैं, किसी पदार्थ, वस्तु या व्यक्ति को अपना मान लेना मोह है,अर्थात व्यक्ति के अन्दर मम यानि मेरा भाव आ जाना ही मोह है!
जबकि माया वो अद्रश्य शक्ति या ताकत है जो आपके मन को मोह की तरफ आकर्षित करने में मदद करती है, माया आपको मोह में डालकर हमेशा सच से दूर रखने का प्रयास करती है।
यही वजह है की माया के जाल में फंसने वाले व्यक्ति की उम्र गुजर जाती है, उसे मौत भी आ जाती है लेकिन उसके मन से मोह नहीं छूटता! इसलिए जानने वाले हमें मोह और माया से खुद को अलग समझने की सीख दे गए हैं।
मोह और माया दोनों इस संसार की खुफियां ताकते हैं जिनसे बचने के लिए मनुष्य को प्रति पल सच्चाई के सह जीना पड़ता है!
माया कैसे धोखा देती है?
इन्सान को सुख देने का लालच देना ही माया का धोखा होता है।
किसी व्यक्ति के जीवन में अगर ढेर सारा दुःख है, पर बीच बीच में उसे थोडा सुख का भी अनुभव होता रहता है तो यही माया का खेल है! ठीक वैसे जैसे किसी इंसान को रोज लगातार 5 घंटे भारी भरकम काम करवाया जाए और फिर अंत में उसे कुछ स्वादिष्ट खाने को दे दिया जाए।
अब उसे खाने की ख़ुशी तो पल भर की हुई लेकिन उसके लिए उसे काफी देर तक कष्ट झेलना पड़ा, यही माया का खेल है वो तुम्हें पहले धुल में लथपथ करते हुए बहुत रौंदती है।
और फिर थोडा सा सुख देकर ललचाती है, जिसे देखकर तुम फिर से धूल में सने हुए उठ जाते हो और इस तरह माया एक के बाद एक धोखा देकर फिर से पटकनी देती है।
इसलिए कहा गया है जिस व्यक्ति को भी सुख का अनुभव हो रहा है, समझ लीजिये उसकी जिन्दगी में दुःख गया नहीं है जल्द आने वाला है।
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गीता के अनुसार माया क्या है?
माया को इस संसार में बड़ा विकट और मुश्किल बताते हुए श्री कृष्ण कह रहे हैं की माया से पार पाना इतना सरल नहीं, केवल वही लोग माया के चक्र से बाहर आ पाते हैं जो मेरी शरण में आते हैं, अर्थात वे लोग जो सत्य की राह में जीवन जीते हैं वही तरह तरह के रंग रंगों, वस्तुओं से मोहित कर देने वाली इस माया से बच पाते हैं!
इस प्रकार भगवान् कृष्ण जो स्वयं मायापति हैं, वे अर्जुन को कह रहे हैं की चुनोगे तो तुम मुझे ही या मेरी माया को या मुझे! लेकिन चूँकि अर्जुन को सत्य से प्रेम है अतः वह श्री कृष्ण को चुनता है और माया से परे होकर धर्म को चुन पाता है!
गीता हमें सिखाती है की जीवन में चाहे मन में कितना डर, लालच, मोह, क्रोध क्यों न आ जाए मन को हमेशा सच्चाई पर ले जाने मात्र से ही व्यक्ति माया के दुष्प्रभाव से बच पाता है!
अंतिम शब्द
तो साथियों इस लेख को पढने के पश्चात माया क्या है? इस प्रश्न का सीधा और सरल उत्तर आपको मिल गया होगा, लेख के प्रति अपने विचारों को कमेन्ट बॉक्स में बताइएगा और इस लेख को शेयर भी कर दें।