तो साथियों प्रेम नामक इस पुस्तक के पिछले अध्याय 1 में हमने जाना की मनुष्य में प्रेम जन्मजात नहीं होता बल्कि उसे प्रेम सीखना पड़ता है। आज, अध्याय 2 की शुरुवात होती है जिसका शीर्षक है क्या प्रेम किसी से भी हो सकता है?
अध्याय 2 की शुरुवात “आचार्य जी, क्या प्रेम किसी से भी हो सकता है? इस प्रश्न से होती है?
जवाब में प्रेम को समझाने के लिए आचार्य जी हमारे भीतर मौजूद मन के 4 तलों की बात करते हैं।
मन के चार तल | हर तल पर है प्रेम का भिन्न अर्थ
कहते हैं पहला तल मनुष्य का सबसे निचले तल का मन होता है ” जहाँ पर इन्सान सिर्फ अपने बारे में सोचता है, यानि की इस तल पर जीने वाला मनुष्य महज अपनी जरूरतों और इच्छाओं की पूर्ती पर ध्यान केन्द्रित करता है, वह अन्य लोगों से भी इसलिए सम्पर्क स्थापित करता है ताकि उसकी कामनाएं पूरी हो जाये”
इस तरह का मन समाज में प्रायः उन लोगो का होता है जो मानते हैं की
दुनिया जाये भाड़ में, हमें सिर्फ अपने से मतलब है।
इसलिए आचार्य जी कहते हैं कि इस तरह के लोगों को समाज कुछ ख़ास महत्व नहीं देता, या पसंद नहीं करता। लेकिन फिर भी ऐसे लोग समाज को चलाने में भूमिका निभाते हैं।
फिर आते हैं दूसरे तल के लोग जो प्रेम करने का एक दायरा निर्धारित कर लेते हैं, उस दायरे में उनके पारिवारिक सदस्य या अन्य कुछ चुनिन्दा लोग होते हैं, इस सीमा के बाहर जो भी लोग होते है उन्हें उनसे कोई प्रेम नहीं होता।
एक आम गृहस्थ व्यक्ति इसी तल पर जीवन जीता है जो कहता है की अपने परिवार के सुख के लिए अगर मुझे दुनिया से बेईमानी करनी पड़े या किसी का शोषण करना पड़े तो मैं उसके लिए भी तैयार रहूँगा।
इस तल पर जीने वाले व्यक्ति को समाज बड़ा पसंद करता है, क्योंकि ऐसे जीवन में पहले से सबकुछ तयशुदा रहता है और समाज के बने बनाये ढर्रे पर लोग जीवन जीते हैं!
फिर आता है तीसरे तल का मन जिसमें कवि, शायर, लेखक, मीडिया इत्यादि आते हैं, जो अपने शब्दों से या बोल से समाज की वास्तविक स्तिथि बयां करने का काम करते हैं!
अब चूंकि पहला तल यानी स्वकेंद्रित मन और दूसरा गृहस्थ व्यक्ति को अपने जीवन से फुर्सत नहीं तो फिर फ़िल्में बनाना, कवितायेँ लिखना या फिर किसी घटना का उल्लेख करना ये सब काम करके तीसरे तल के लोग, लोगों का ध्यान किसी मुद्दे पर आकर्षित करते हैं!
इनसे समाज में कुछ लोग या वर्ग खफा तो रहते हैं लेकिन चूँकि ये लोग किसी सिस्टम के खिलाफ किसी तरह का स्पष्ट विद्रोह नहीं करते, इसलिए समाज में लोग इन्हें स्थान दे देते हैं!
ऋषि के मन में होता है अथाह प्रेम – मन का चौथा तल
फिर आता है चौथा तल जो की एक ऋषि का मन होता है, इस तल पर मन आकर अ-मन हो जाता है, क्योंकि यहाँ पर मन यानि मैं खत्म हो जाता है और सिर्फ प्रेम बचता है!
एक कवि जहाँ परिवार से आगे जाकर समाज में कई लोगों तक पहुँच जाता है, वहीँ ऋषि को अब व्यक्ति और उनकी संख्याएं दिखाई नहीं देती।
क्योंकि अब उनके प्रेम का कोई विषय नहीं है, ऋषि के मन में कर्ता भाव समाप्त हो जाता है क्योंकी जब कोई कहेगा मैं किसी से प्रेम करता हूँ इसका मतलब है मैं यानि अहंकार इस बात को बोल रहा है।
तो अहंकार खत्म होने की वजह से ऋषि के मन में कोई हिंसा नहीं होती वहां सिर्फ प्रेम होता है, और वो भी किसी एक व्यक्ति विशेष या समुदाय के लिए नहीं बल्कि यह हर जगह होता है!
इसलिए इस तल पर जीने वाला व्यक्ति आत्मस्थ होता है और अब यह कहीं भी जाता है तो किसी स्वार्थ या कामना से नहीं जाता! इसलिए जहाँ जहाँ इसके कदम पड़ते हैं वहां भी प्रेम के छीटे पड़ते हैं।
प्रेम के नाम पर समाज में हो रहे हैं कुकर्म
आगे आचार्य जी इस अध्याय में कहते हैं प्रेम वो बिलकुल नहीं जो प्रायः हमें टीवी, समाज और फिल्मों में बताया जाता है यह दूसरे तल का मन है!
आजकल 8-9 साल की बच्चियां प्रेम के गानों में नांच रही है, झूम रही है, माँ बाप देखकर गदगद हो रहे है। लेकिन इस फूहड़पन को प्रेम का नाम दिया जा रहा है, निब्बा- निब्बी जिनकी दाढ़ी-मूंछ नहीं आई है वो आशिक बनकर घूम रहे हैं!
इसलिए तो ऋषियों ने जब देखा की समाज में उस समय भी प्रेम शब्द के नाम पर क्या क्या घटिया काण्ड हो रहे हैं तो ऋषियों ने इस शब्द का नाम बदलकर परा प्रेम अर्थात परमप्रेम कर दिया!
लेकिन आचार्य जी कहते हैं की ऋषियों को विद्रोह करना था उनको प्रेम शब्द का नाम बदलना नहीं चाहिए था, बदलना तो उनको चाहिए था जिन्होंने प्रेम शब्द का अपमान किया।
अध्याय में कहा गया है कि प्रेम तो बहुत ऊँची चीज है, जो इंसान के दु:खों, बन्धनों को काटता है और उसे खुले आसमान में उड़ना सिखाता है, वो हमें छोटा शुद्र जीवन जीने से रोकता है और हमें सही जीवन जीने की प्रेरणा देता है!
अंतिम शब्द
तो साथियों यह थी अध्याय 2 की बुक समरी, अगर आपको इस बुक को विस्तार से पढना है और प्रेम का सही अर्थ समझना है तो आप इस बुक को Amazon से घर मंगवा सकते हैं!