अध्याय 3 का शीर्षक है कौन है प्रेम के काबिल? जिसके आरम्भ में प्रश्नकर्ता पूछ रहे हैं की आचार्य जी इस संसार में दूसरों से प्रेम करना इतना मुश्किल है, जबकि टीवी, फिल्मों में हम देखते हैं की लव इज गॉड, लेकिन फिर भी ऐसा क्यों है की एक व्यक्ति दूसरे से प्रेम नहीं कर पाता!
जवाब में आचार्य जी कहते हैं ” प्रेम करने वाला कौन है“
प्रश्नकर्ता: हम
आचार्य जी: हम माने कौन
प्रश्नकर्ता: स्वयं मेरे लिए बहुत मुश्किल है किसी व्यक्ति से प्रेम करना।
आचार्य जी: आप हैं कौन उसी से ये निर्धारित होता है की आपका प्रेम क्या होगा दूसरों के लिए?
आगे आचार्य जी प्रश्नकर्ता से सवाल जवाब करते हैं और इस रोचक बातचीत में अर्थ निकलता है की हम एक दु:खी इंसान यानी अतृप्त चेतना हैं जो लगातार शांति की खोज में है!
चैप्टर -3 कौन है प्रेम के काबिल? Full summary
आचार्य जी आगे कहते हैं इसलिए जब एक अशांत व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से जुड़ता है तो वह आपस में इसलिए सम्बन्ध स्थापित करता है ताकि उसे उससे शांति मिल सके!
इस अध्याय का विडियो देखें| Chapter 3 Video Summary in Hindi
देखिये, आप परेशान हैं आपके जीवन में दुःख, भ्रम और कई तरह के बंधन हैं तो जब आप किसी के सम्पर्क में आते हैं तो क्या इसलिए आते हैं ताकि आपके जीवन में सच्चाई आये, आपके कष्ट कम हो, बंधन कटे और जीवन में शान्ति आये!
आप देखिये आजकल क्या हो रहा है, प्रेम के नाम पर हाथ पकड़कर लोग क्या कर रहे हैं?
लेकिन चाहे कुछ भी हो एक बात तय है की शान्ति की तलाश में हर कोई है, तो ये बात समझनी होगी की प्रेम सिर्फ इंसान तब कर सकता है जब वह दूसरों के बन्धनों को काटने में उसकी मदद करे, ताकि उसका जीवन उसे दु:खो से आजाद करे।
बाकी इसके अलावा कोई अगर प्रेम के नाम पर किसी से संपर्क बनाता है, या जुड़ता है तो समझ लेना किसी चीज़ को पाने के लालच से, सुरक्षा से, कामवासना की पूर्ती से, सामाजिक दबाव इत्यादि कोई भी कारण से वह उससे जुड़ा हो सकता है।
लेकिन इस वजह से की गई संगती प्रेम बिलकुल नहीं हो सकती।
प्रेम को पाना इतना कठिन क्यों?
आगे इस अध्याय में आचार्य जी कह रहे हैं कि आपने कहा प्रेम पाना इतना मुश्किल क्यों है?
बात सीधी है हम वो इंसान हैं जिसकी आखिरी चाह किसी और को पाने की है, लेकिन वो ढूंढता किसी और को है, उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति रेगिस्तान में है और वह प्यास से व्याकुल है लेकिन वो पानी की उपेक्षा करके आगे पिज्जा की तरफ बढ़ रहा है!
तो क्या ऐसा करके इंसान शांत हो सकता है, नहीं न हम ऐसे ही हैं।
हमें चाहिए असल में कुछ और, पर हम उसे नजरंदाज करके 100 फ़ालतू की चीजों को जीवन में पाने की कोशिश करते है ताकि…. शांति मिल सके!
आगे इस विषय पर आचार्य जी विस्तार से आसान उदाहरणों के जरिये बात पूरी करते हैं ताकि ये स्पस्ट हो जाये की हम अशांत क्यों रहते है? और शान्ति के आसान रास्ते पर बढ़ने की बजाय उससे दूर क्यों हो जाते हैं?
जब दुनिया में हर कोई दुखी है? तो फिर इस सच्चाई को जग जाहिर क्यों नहीं करता?
प्रश्नकर्ता के इस प्रश्न पर की आचार्य जी जब आग अन्दर मौजूद है तो फिर ये मन बाहर छोटी-छोटी चीजों में शान्ति क्यों ढूंढता है? आचार्य जी कह रहे हैं देखिये हमारी इन्द्रियां नाक, कान, और मस्तिस्क सभी बाहरी जानकारियां अवशोषित करती है!
कान ध्वनियाँ सुन रहे हैं बाहर से, नाक ऑक्सीजन ले रही है बाहर से और इसी तरह से जो हमारा दिमाग है वो लगातार बाहरी द्रश्यों और लोगों के आधार पर विचारों को निर्मित करता है!
और इन सब बातों का सीधा सम्बन्ध आपको ये बात न पता चलने देना है कि और लोग भी दु:खी हैं, ये संगती का असर है की जब आप 50 दु:खी लोगों के बीच रहें और उनमें से सभी आपसे कहें की जिन्दगी बढ़िया है, सब मस्त है तो जाहिर सी बात है आप 51वें ऐसे व्यक्ति होंगे जो कहेंगे हाँ भाई सब बढ़िया है…
लेकिन इसका अर्थ कतई नहीं की मन का दुःख छुप जायेगा या चला जायेगा!
बाहर से कितना हैप्पी, हैप्पी दिखाओ लेकिन अन्दर जो बैठा है वो लगातर रो रहा है। जीवन में आपको लगता है सब कुछ तो है मेरे पास लेकिन भीतर वो जो है वो शांत नहीं होता है!
और अन्दर मौजूद वही चेतना इस दुःख को निकालना चाहती है, और आत्मस्थ होना चाहती है क्योंकि आत्मा ही सचिदानंद स्वरूप है, आनन्दित रहना उसका स्वभाव है। वो ही परम है सत्य है लेकिन झूट बोलकर आप उस आंतरिक बेचैनी को ओर बढ़ा देते है!
जी घबराया हुआ है, बेचैन है लेकिन उन 50 लोगों के बीच रहकर तुमने अपनी ऐसी दुर्गति कर ली है की अब सच को मानने के लिए राजी नहीं हो..
तो उपाय यही है की उस संगती से बाहर आ जाओ जो तुम्हें तुम्हारे सड़े हाल में ही सड़ने को यूँ ही मजबूर करे, संगती करो ऐसों की जो तुम्हारे दुःख, बन्धनों को काट सके और तुम्हें तुम्हारा आत्मिक आनंद दे सके! क्योंकि केवल वही है जो आपका अपना है जिसे कोई छीन नहीं सकता!
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आचार्य जी क्या बेशर्त प्रेम होता है?
आचार्य जी कहते हैं अभी हमारे लिये नहीं, यहाँ इस हॉल में मेरे सामने उपस्तिथ हो बिना किसी इरादे के बैठे हो, है ना लक्ष्य की जीवन में सच्चाई, शांति और बोध पाना है।
“इसी तरह जब तक मुक्त नहीं हो जाते अपने बन्धनों, दु:खों से तब तक इसी कंडिशन (शर्त) पर प्रेम करो कि किसी व्यक्ति, समूह के निकट आने पर मुझे जीवन में रोशनी, शांति और मुक्ति नहीं मिल रही है? अगर नहीं, तो उठ के वहां से निकल लो”
आगे इसी वार्ता में प्रश्नकर्ता ये पूछते हैं की अगर मै किसी की अशांति को दूर करने के लिए उससे प्रेम करूँ तो यह तो बेशर्त प्रेम होगा न ?
जवाब में आचार्य जी कहते हैं कर पा रहे हो आप ऐसा?
प्रश्नकर्ता: अभी इतनी सामर्थ्य नहीं,
आचार्य जी: तो आप दूसरे का दर्द कैसे ठीक कर सकते हो, जब तुम खुद मुक्त नहीं हो!
इस तरह यह वार्ता चलती है और अध्याय 3 कौन है प्रेम के काबिल? को आचार्य जी बड़े विस्तार से समझाते है? अगर आप डिटेल में इस अध्याय का अध्ययन करना चाहते हैं तो आप यह पुस्तक Amazon से खरीद कर ऑर्डर कर सकते हैं।