पशुओं के प्रति हमारी क्रूरता छुपी नहीं है, रोजाना असंख्य जानवरों को हमारे स्वाद के लिए अपनी जान देनी पड़ती है इसके अलावा जंगलों को काटने से जो जानवरों की प्रजातियाँ विलुप्त हो गई हैं उनके बारे में तो सोच ही नही पाते हम।
इसलिए प्रश्नकर्ता ने जानवरों के प्रति होने वाले इस भीषण संहार का कारण जानने का प्रयास किया है? आइये सम्बन्ध नामक इस पुस्तक के तेहरवें अध्याय में हम इंसानों द्वारा जानवरों के साथ किये जाने वाले अत्याचार का कारण जानते हैं और मानव और प्रकृति के बीच उचित समबन्ध का अध्ययन करते हैं।
मनुष्य ही भगवान की सर्वोत्तम रचना और अहंकार
अध्याय के आरम्भ में आचार्य जी कहते हैं 2 -3 प्रश्न हैं, पहली ये की मनुष्य भगवान् की सर्वोत्तम रचना है, ऐसा हम क्यों कहते हैं?
इंसान की यह मान्यता बहुत बहुत मूर्खतापूर्ण और घातक है उसे लगता है प्रकृति ने हमें सबसे श्रेष्ट बनाया है और बाकी सब चीज़ें हमसे नीचें की है, ये बात समझना की प्रकृति में मौजूद सभी चीज़ें और अन्य जीव और जानवर हमसे अलग हैं हमसे ऊपर या नीचे नहीं।
अभी तुम यहाँ इस कक्ष में बैठे हो तुम्हें यहाँ बहुत शान्ति प्रतीत हो रही होगी, क्योंकि आपके कानों में पड़ने वाली साउंड वेव्स की एक निश्चित सीमा है जो की 20 से 20 हजार हर्ट्ज होती है, लेकिन जिसे आप सुपरसोनिक साउंड वेव्स कहते हैं वही साउंड एक कुत्ते की होती है और अगर वो इस बीच कमरे में आकर कहे बहुत शोर है।
तो आप मानोगे नहीं, आप कुत्ते को मारकर भगा दोगे, तुम्हारा अहंकार सच को नहीं देखता वो आपकी सोच के हिसाब से निर्णय लेता है।
इसी तरह इंसानों में भी कुछ ऐसे कबीले हैं जो कपडे कम पहनते हैं, उनकी भाषा भी लगभग सांकेतिक होती है और उन्हें इससे कोई परेशानी नहीं है ऐसे लोगों को हम देख लें तो हम सोचने लगते हैं ये असभ्य हैं, बर्बर हैं या इनमें कोई संस्कार नहीं है।
और उन्हें हम एक तुच्छ इन्सान समझते हुए कहते हैं इन्हें थोडा सामाजिक होने की जरूरत है। देख पा रहे हो अंहकार समझता है अगर कोई मेरी तरह है तो ही वो ठीक है अन्यथा नहीं।
इस बीच प्रश्नकर्ता कहते हैं सर आप ही कहते हैं अपनी सोच को मानो। आचार्य जी कहते हैं अपनी नजर से खुद को देखने का अर्थ सोचना नहीं होता है बल्कि अपनी द्रष्टि से देखने का मतलब खुद का प्रत्यक्ष रूप से अवलोकन (डायरेक्ट ओब्सर्वेशन) करना होता है ताकि तुम सच्चाई को देख सको।
मानव प्रकृति से श्रेष्ट नहीं बल्कि अलग है
आगे आचार्य जी कहते हैं आदिवासी तो फिर भी थोडा कम कपडे पहनते हैं और हम उन्हें तुच्छ मान लते हैं लेकिन जानवर तो बेचारे कपडे ही नहीं पहनते तो हम उन्हें बहुत निचले तल का जीव मान लेते हैं और कहते हैं ये तो बिलकुल ही जानवर है।
प्रकृति में विविध प्रकार के जीव जंतु और पेड़ पौधे हैं, पेड़ भी हैं घास भी है लेकिन कभी पेड़ यह नहीं कहता की घास तू तो मेरे पैरों के नीचे दबी है तो तुच्छ है लेकिन इन्सान का अहंकार कहता है मैं सबसे श्रेष्ट हूँ मेरे पास शक्ति है।
लेकिन समझना ये बात की तुम श्रेष्ट नहीं हो बस बाकी जीवों से अलग हो। देखो न चिड़िया कभी नहीं कहती मछली से की देख मैं उडती हूँ तू जमीन में ही रहती है, मैं तेरा शोषण करुँगी। पर हम करते हैं अपने से कमजोर जानवरों का शोषण क्योंकि हम श्रेष्ट हैं।
पशु हत्या इसलिए क्योंकि वो प्राणी कमजोर हैं
आगे आचार्य जी कहते हैं की बहुत लोग कहते हैं अगर जानवरों को न खाया जाये तो शरीर में पोषण की कमी हो जाएगी। ये कुतर्क है जरा सा गूगल करने पर आप पाएंगे की दुनिया में कई ऐसे पहलवान हैं जो मीट का सेवन तो क्या दूध भी नहीं लेते।
बिना मीट खाए भी शरीर को पोषण प्राप्त हो जाता है, पर हमें तो स्वाद लग चुका है। लेकिन जरा भी संवेदना होगी इंसान में तो वो इन जानवरों को नहीं खायेगा, और न सिर्फ खाने के लिए बल्कि अपनी इच्छाओं की पूर्ती हेतु भी जानवरों का शोषण होता है। सिल्क की साडी पहनते होंगे घरों में आपके, सिल्क के कीड़े को जिन्दा उबाला जाता है।
यही नहीं मुझे फर का कोट पहनना बड़ा पसंद है। ऑर्डर कर दो। और इंसानों द्वारा जानवरों, जीवों का जिस प्रकार शोषण किया जा रहा है, उससे न सिर्फ उनकी जान जाती है बल्कि हम इंसानों के अस्तित्व पर भी खतरा मंडराता है।
क्योंकि ऐसा करके पूरी इकोलोजी का तन्त्र टूटता है। और यह सब हरकतें इसलिए की जाती हैं ताकि इन्सान ये समझे की मैं श्रेष्ट हूँ।
और अहंकार देखो यहाँ अपने पालतू कुत्ते को तो हम नहलायेंगे भी खिलाएंगे भी लेकिन घर में कोई आवारा कुत्ता आ जाये तो मारेंगे डंडे से, सोचो तुम्हारे पालतू कुत्ते को कोई पकाकर खाए तो कैसा लगेगा? बुरा लगेगा न तो एक कुत्ते और एक बेचारे बेजुबान मुर्गे में कोई अंतर है क्या??
मुर्गी, अंडा और दूध
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कहते हैं जब खाने में अंडा इस्तेमाल होता है तो उसमें कोई जान नहीं होती।
आचार्य जी: सोचिये जरा मुर्गी इतने सारे अंडे क्यों देती है? उसने ठेका लिया है की क्या मै पूरी दुनिया का पेट भरुंगी, जबरदस्ती की जाती है उनके साथ और मान लेते हैं जान न भी हो अंडे में मुर्गी में तो है।
और तुम्हारे पास क्या ये अधिकार है की तुम जबरदस्ती उस जानवर से अंडे निकलवा रहो हो? ये ऐसे ही बात है जैसे किसी औरत से जबरदस्ती बच्चे पैदा करवाना।
इस बीच प्रश्नकर्ता कहते हैं अकेले हम खाना छोड़ भी दें तो क्या होगा? आचार्य जी अकेले खाने वक्त सोचते हो अकेले क्यों खा रहा हूँ? तो छोड़ने वक्त ऐसा क्यों? और जिस इन्सान की नियत होगी समझने की, जरा भी संवेदना होगी जानवरों के प्रति तो वो नहीं खायेगा। बाकियों की क्यों सोचते हो तुम तो छोडो।
जानते हो एक मनुष्य के पैदा होने के छ महीने या साल भर बाद दूध पीना तक जरूरी नहीं होता, क्योंकि जितना उसके लिए जरूरी है माँ के स्तनों से उसे वो दूध मिल जाता है, लेकिन ये बात स्वीकार करने में तो दर्द होगा न देखा है कभी एक बछड़ा कैसे छटपटाता है माँ के दूध के लिए और हम उसे खींचते हैं और उसके हिस्से का दूध स्वयं पी जाते हैं।
सोचो न जब बछड़ा बड़ा हो जाता है क्या गाय के तब भी दूध आता है? नहीं न बस एक मनुष्य की भांति ही गाय हो या भैंस इन जानवरों का दूध अपने बच्चो के लिए होता है। और मै ये नही कहता जीवों पर दया करो दया स्वयं पर करो मुर्गा तो गया उसे मुक्ति मिल गयी पर तुम बचे हुए हो तुम्हारा क्या होगा?
सम्बन्ध पुस्तक के पिछले अध्याय
➥ प्रेम क्या है और क्या नहीं? अध्याय 11
➥ Chapter 10 | प्रेम बेहोशी का सम्बन्ध नहीं
अंतिम शब्द
तो साथियों इस तरह अध्याय में आचार्य जी हमें समझाते हैं की बड़े पैमाने पर आज सन्सार में इंसानों द्वारा पशु हत्या क्यों की जा रही है? अगर आप इस पूरे अध्याय (हम पशुओं को क्यों मारते हैं) में आचार्य जी की कही गई बात को पढना चाहते हैं तो इस लेख को आप Amazon से ऑर्डर कर सकते हैं।