समाज का डर या कहें की भीड़ का डर हममें इस कदर हावी रहता है की कई बार जो बात कहने लायक है वो भी हम भीड़ के डर से नहीं कह पाते। ( बिना उम्मीद, बिना मतलब Chapter 14 )
या हम अपनी बात रखते भी हैं तो यह सोचकर की कहीं हमारी बात से किसी को बुरा न लग जाये या कोई मजाक न करने लग जाए ऐसा क्यों होता है?
ये बहुत से लोगों का प्रश्न है क्यों अहंकार को दूसरों से इतना फर्क पड़ता है? आइये समझते हैं सम्बन्ध नामक इस पुस्तक के चौदहवें अध्याय में।
लोगों से हमारा गलत सम्बन्ध
प्रश्नकर्ता कहते हैं जब भी हम भीड़ के सामने कुछ बोलते हैं तो मन/ अहंकार क्यों इस बात से डरता है की कहीं मेरा उपहास न उड़ जाये या फिर लोग मेरी बात पर कोई गलत प्रतिक्रिया न कर दें। जब अहंकार असल में नकली है तो फिर हमें बुरा क्यों लग जाता है?
आचार्य जी कहते हैं क्योंकि तुम स्वयं को वही मानते हो न जो तुम्हें लोग बोलते हैं, कोई कहे तुम बहुत सुन्दर हो, दयालु हो तो खुद को आप वही मान लेंगे। और वहीं यह भीड़ तुम्हें कह दे तुम कपटी हो, चोर हो, पागल हो तुम खुद को यही मानकर बुरा मानने लग जाओगे।
तुमने अपनी पहचान किसे दे दी है भीड़ को
तुम्हारा नाम क्या है?
प्रश्नकर्ता: चन्द्रनाथ
आचार्य जी: अभी ये भीड़ तुम्हें कह दें चन्द्रनाथ हमारा नाथ तो तुम खुशी से झूम उठोगे और वहीँ अगर ये भीड़ कह दे तुम्हें चन्द्रनाथ महा अनाथ तो तुम बेहद दुखी हो जाओगे! तो तुम्हारी छवि किस पर निर्भर है लोगों पर।
प्रश्नकर्ता: तो सर क्या लोगों से कोई सम्बन्ध न रखें?
आचार्य जी: अभी ये जो हमारी तुमसे बातचीत हो रही है, है न हमारा और तुम्हारा सम्बन्ध, क्या ये सम्बन्ध इसलिए है क्योंकि तुम यहाँ बैठ कर मेरी छवि तय करोगे? सबंधों का कोई दूसरा आधार भी हो सकता है न।
सम्बन्ध और हमारी उम्मीदें
फिर प्रश्नकर्ता कहते हैं सर अगर लोग हमारे इस सम्बन्ध को समझे ही न तो?
आचार्य जी कहते हैं मै कुछ बात कह रहा हूँ आपको समझ नहीं आ रही है तो इसमें मैं क्या करूँ? मेरा काम है जो मै कर रहा हूँ! ये थोड़ी है की सभी को वो बात समझ आ ही गयी होगी।
पर अगर मैं ये सोच के काम करूं की मेरी सभी बातें लोग समझेंगे तभी ये काम करना सार्थक है तो फिर हो गया काम।
प्रश्नकर्ता: पर सर फिर भी प्रतिक्रया की उम्मीद तो रहती है न, अगर आपकी बात हमें समझ नहीं आ रही है तो फिर आपके तो समय की बर्बादी हो गई न।
आचार्य जी: मैं तुम्हारी उम्र के लोगों से रोज दिन में 2 से 3 बार मिलता हूँ, अलग अलग प्रश्नों और समस्याओं को लेकर और मैं अपनी तरफ ये पूर्ण प्रयास करता हूँ की उन्हें वो बात समझ आ जाये।
लेकिन अगर मैं ये उम्मीद रखूं की उन्हें वो बात समझ आएगी तभी मेरा काम करना उचित है तो फिर मैं एक दिन पड़ा रहूँगा बिस्तर में! ये सोचकर की 6 घंटे बर्बाद हो गए।
कुछ चीजें होती है निरुदेश्य
प्रश्नकर्ता: सर आप यहाँ हो किस लिए?
आचार्य जी: तुम्हें इससे क्या मतलब?
प्रश्नकर्ता कहते हैं मतलब आप कुछ दे रहे हैं लोग अगर लें न तो आपके काम करने का क्या मतलब होगा?
आचार्य जी: इस कमरे में हवा है, उसका क्या मतलब है? इसको हटा दो बोलो क्या मतलब है तेरा.. इसी तरह सूरज की रोशनी देख रहे हो इसका क्या मतलब है?
प्रश्नकर्ता: सर हवा हमें ऑक्सीजन देकर जीवन प्रदान करती है।
आचार्य जी: तुम्हें लगता है ये हवा तय करती है तुम्हें जीवन प्रदान करे? अभी तुम मर जाओ ये पूरी दुनिया नष्ट हो जाये हवा को रत्ती भर फर्क नहीं पड़ेगा। और हवा लोगों को नहीं मिलेगी इसमें हवा का क्या जाता है? हवा तो अपना काम कर रही है बस
कुल मिलाकर कुछ बातों का कोई मतलब नही होता आप बेवजह मतलब खोज रहे हैं! हवा और सूरज की भांति मेरा भी यहाँ होने का कोई मतलब हो ये जरूरी नहीं है! निरुद्देश्य
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अंतिम शब्द
तो साथियों इस वार्ता के साथ यह लेख समाप्त होता है अगर आप इस सम्पूर्ण अध्याय (बिना उम्मीद, बिना मतलब) को अपने शब्दों में पढ़ना चाहते हैं तो Amazon से आप यह पुस्तक ऑर्डर कर सकते है। अगर इस लेख को पढ़कर आपको अपने जीवन में बोध प्राप्त हुआ है तो इस जानकारी को शेयर भी कर दें।