दूसरों को सिद्ध करने की जरूरत क्यों? Chapter 17 Summary | सम्बन्ध पुस्तक

कई बार हम सही होते हैं पर चूँकि हमें कोई झूठा साबित करने की कोशिश करता है तो हम अपना कीमती समय स्वयं को सही साबित करने में बर्बाद कर देते हैं।

इसी को लेकर प्रश्नकर्ता ने आचार्य जी से प्रश्न किया है जिसमें आचार्य जी ने बताया है की दूसरों को सिद्ध करने की जरूरत क्यों? और कब पड़ती है? साथ ही जब हमारे साथ ऐसी स्तिथि आये तो हमें क्या करना चाहिए?

दूसरों को सिद्ध करने की जरूरत क्यों

कोई गलत कहे तो क्या बुरा मानना

अध्याय के आरम्भ में आचार्य जी कहते हैं पहले मैं आपसे पूछना चाहूँगा दूसरों के सामने सिद्ध करने की जरूरत हमें क्यों पड़ती है?

श्रोता: सर कोई हमें सही होने के बाद भी गलत कहे बुरा तो लगेगा ही न।

आचार्य: पर बताइये बुरा क्यों लगता है? अगर तुम ठीक हो तब तो बिलकुल बुरा नहीं लगना चाहिए।

श्रोता: सर बुरा क्यों नहीं लगेगा?

आचार्य जी अब जानबूझकर प्रश्नकर्ता का नाम गलत संबोधित करते हुए कहते हैं सीमा मेरी बात समझो, गलत नाम सुनकर सभी हंसने लगते हैं।

तो आरजू को तो बुरा नहीं लगा उसे सीमा बोल दिया, बल्कि वो तो हंस रही है!

श्रोतागण: नहीं लगेगा!

आचार्य: क्यों नहीं लगेगा?

श्रोता: सर वो तो ठीक है पर…

आचार्य जी: अरे तुम गाली दो, मारो या रो लो की मुझे सीमा बोल दिया, अच्छा कल जब पुलिस ने बीच सड़क पर हेलमेट न होने की वजह से घसीटा था तुम्हें और 2 हजार का जुर्माना वसूला वो तो याद है न!

सिद्ध करने का प्रयास तभी होता है जब खुद पर शक हो

श्रोतागण फिर हंसने लगते हैं और कहते हैं सर वो इसलिए हंस रही है क्योंकि उसे पता है ये सब बातें झठी हैं! और वो इन बातों पर ध्यान ही नहीं देगी।

आचार्य जी: ध्यान नहीं देगी, तो इसी तरह कोई इसे सड़क पर चलते हुए कहे ओये, सुनील रुक जा.. तो क्या उस बात को सुनकर खुद को साबित करेगी की नहीं मै लड़का हूँ, नहीं न तो जब खुद पर शक हो, संदेह हो तभी साबित करने का ख्याल दिमाग में आता है।

अन्यथा इस संसार में चाहे कोई शिक्षक हो, मां बाप हो, रिश्तेदार हो या कोई अजनबी इंसान कुछ कहे तुम्हें फर्क ही नहीं पड़ेगा अगर तुम्हें अपनी सच्चाई पता हो तो।

जब प्रेम से किसी के शक को दूर करो

अगर कोई तुम पर बेवजह शक कर रहा है तो या तो तुम आहत हो जाओगे और उसे साबित करने की कोशिश करोगे दूसरा आप हंसोगे और कहोगे बेचारा अनजान है, ना समझ है चलो इसके भ्रम को दूर करते हैं!

माता पिता अगर नहीं समझ पा रहे हैं तो समझाओ उन्हें प्रेम से, क्योंकि जब कोई भूल में जी रहा हो तो वह दुःख पाता है। और तुम क्या चाहते हो माँ बाप उसी ना समझी में जीवन बिताये, एक बेटे और माता पिता का रिश्ता शिक्षक छात्र का भी तो हो सकता है न,

लेकिन सामंथा (आचार्य जी फिर गलत नाम सम्बोधित करते हैं) तुम्हें माता पिता को समझाने के लिए बेटी होने से हटना पड़ेगा, और उन्हें माता पिता से परे होकर तुम्हारी बात सुननी होगी!

आचार्य जी कहते हैं इस बात का अनर्थ मत कर देना की घर जाकर कहो आज से मैं तुम्हारी बेटी नहीं, बल्कि आपको उन्हें समझाना होगा की आप मुझे एक बेटे या बेटी की तरह नहीं एक इंसान की तरह देखिये, और मां बाप को भी तुम्हें एक इंसान की भाँती देखना होगा फिर तुम सब समझा पाओगे।

खुद को सिद्ध करने में समय मत गवाइए!

तो सबसे पहली बात की किसी को सिद्ध करना है इस बात पर ध्यान मत दीजिये, क्योंकि सिद्ध हम तभी करते है जब हम अपने शक की वजह से आहत होते है, अमन (फिर गलत नाम लेते हैं) को अपने ऊपर शक ही नहीं है की वो तान्या है फिर वो आहत कैसे होगा!

दूसरी बात तुमने कहा समझाएं कैसे? देखिये प्रेम में समझाइये डर में नहीं, प्रेम बड़ी निर्भयता देता है जितना प्रयास हो सके समझाओ दूसरे को क्योंकि प्रेम बदले में कुछ आशा नहीं रखता और अंत में समझाने के बाद भी वो न समझे तो हंसों की इतना समझाया पर फिर भी तुम नहीं समझे।

सम्बन्ध पुस्तक का पिछला अध्याय –

« माँ का अर्थ जानो और स्वयं को जन्म दो | Chapter 16

« ममता स्वार्थ है, मातृभाव प्रेम है | Chapter 15

« बिना उम्मीद, बिना मतलब | Chapter 14

अंतिम शब्द

तो साथियों इस तरह सम्बन्ध पुस्तक के इस अध्याय ( Chapter 17 दूसरों को सिद्ध करने की जरूरत क्यों) की समाप्ति होती है जिसमें आचार्य जी हमें समझाते हैं दूसरों को सिद्ध करने में हमें अपना समय व्यर्थ नहीं गवाना चाहिए! आशा है इस लेख को पढ़कर जीवन में कुछ स्पष्टता आई होगी, अतः अन्य लोगों तक भी यह सन्देश पहुंचाने के लिए इस लेख को सांझा कर दें!

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