सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप | कबीर साहब

भारत की भूमि पर अनेक महान संतों का जन्म हुआ, उन्हीं में से एक हैं कबीर साहब। आज हम उन्हीं के कहे गए एक प्रसिद्ध दोहे सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप नामक इस दोहे का सच्चा और सीधा अर्थ समझेंगे ताकि हम संत कबीर की सीख को जीवन में अपना सके।

सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप का असली अर्थ

देखिये जिस व्यक्ति की समझ जितनी होती है वह बातों का भी अर्थ अपने ही स्तर पर निकालता है। जैसे आप किसी दोहे को एक बच्चे को पढ़कर सुनाएँ तो उसकी नजर में दोहे का अर्थ बिलकुल अलग होगा एक व्यस्क और प्रौढ़ व्यक्ति की तुलना में।

अतः आमतौर पर जिन दोहों को हम भजन या किताबों में पढ़ते हैं उन दोहों का अर्थ हमारी नजर में बिलकुल सतही (हल्का) होता है वास्तव में जिन ज्ञानियों के मुख से ये बातें कही गई है उसे समझने के लिए हमें एक ऐसा ही गुरु चाहिए।

अतः आज हम एक गुरु की व्याख्या में इस दोहे का वास्तविक अर्थ समझेंगे। तो आइये पढना शुरू करते हैं।

सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप का वास्तविक अर्थ

सांच बराबर तप नहीं पंक्ति से आशय है की जिस प्रकार यज्ञ में लकड़ी, घी इत्यादि की आहुति देकर देवताओं को प्रसन्न किया जाता है, उसी प्रकार अपने मन के विकार (अशुद्धि) को त्यागकर अथवा आहुति देकर ही हम सत्य तक पहुँच सकते हैं।

झूठ बराबर पाप का अर्थ है की जो इंसान यह जानते हुए भी की क्या सच है, क्या चीज़ धारण करने योग्य है और किस चीज़ की आहुति देनी चाहिए। यह जानते हुए भी वह फिजूल की धारणाओं/ चीजों को पकडे रहता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन झूठा और पापी के समान होता है।

चलिए इसी दोहे को जरा विस्तार से सरल शब्दों में जानने का प्रयास करते हैं।

सांच बराबर तप नहीं का अर्थ

कबीर साहब के इस दोहे में तप शब्द से आशय तपस्या से है, पुराने समय में ऋषि-मुनि श्रेष्ट शक्ति अर्जित करने के लिए सालों तक भूख, प्यास, मोह, लालच इत्यादि से ध्यान हटाकर भक्ति में लीन रहते थे।

इसी प्रकार जो मनुष्य सत्य का साधक है अर्थात जो हरि/ परमात्मा को पाना चाहता है है, उसे भी एक ऋषि की भाँती तप करना होता है, यहाँ तप से आशय पहाड़ों या जंगलों में बैठकर यज्ञ करने से नहीं है। बल्कि अपने रोजमर्रा के जीवन में ही अपने मन की कमियों (विकारों) को दूर करना ही वास्तव में तप है।

हम सभी जानते हैं एक सही जीवन जीने, अर्थात जीवन में सही काम करने पर मन कितना विरोध करता है, आप यह जान भी जाएँ की किस काम को करना उचित है उसके बावजूद मन कई बार लालच के खातिर तो कभी मोह और ममता की वजह से उस काम को करने से आपको रोकता है।

इसलिए कबीर साहब कहते हैं की सत्य के मार्ग पर चलने पर जो पुरुष अपने मन के विरोध को सहकर जो इसे काबू कर लेता है वही परम सत्य तक पहुँच पाता है।

पर चूँकि अधिकतर लोग ऐसा नहीं कर पाते वो मन के कहने पर ही जिन्दगी जीते हैं फिर यही वजह है की कोई बिरला इंसान ही अपना जीवन राम को यानी सही कर्म को समर्पित करता है।

सोचिये न जब हमारा मन हमारे पास होते हुए भी किसी को कुछ देने के लिए विरोध करता है तो वह इन्सान जो अपने खातिर नहीं बल्कि मन का लालच, कपट सब त्यागकर, बिना कुछ पाने की आशा से कर्म करे, वैसा इंसान बनना आसान होता है क्या?

इसलिए सच से आशिकी करना बहुत बड़ी बात है, नानक साहब, संत कबीर, मीरा बाई इत्यादि इन्होने सत्य से ही जीवन भर दिल लगाया।

झूठ बराबर पाप नहीं का सच्चा अर्थ

अगर कोई इन्सान बार बार एक ही गड्ढे में गिर रहा है तो क्या इसका मतलब है की वो अज्ञानी है, उसे गड्ढे का पता नहीं है? जी नहीं, उसे भली भांति मालूम है। पर उस गड्ढे के पास कुछ ऐसा जरुर है जो उसे बार बार अपनी तरफ खींच रहा है।

इसी तरह हम में से कई लोग भली भांति यह जानते हैं की जीवन में आनंद, शांति और सच्चाई किन जगहों पर जाकर मिलती है, और हम ये भी जानते हैं बेहोशी, लालच और मजबूरी कहाँ जाकर बढ़ जाती है?

पर यह जानते हुए की किस चीज़ से हमें दुःख मिलता है, इंसान फिर भी उस चीज़ की तरफ बढ़ता है। और फिर एक के बाद एक ठोकर जिन्दगी में खाता रहता है। पर भले ही हम इसमें प्रकृति को दोष दे दें, लेकिन सामान्यतया गलत दिशा को बढ़ने और चोट खाने का निर्णय हमेशा हम ही लेते हैं।

अगर एक शराबी, शराब की तरफ न जाए तो क्या वो बेहोशी में जी पायेगा? नहीं न क्या एक लालची अगर पैसे या किसी मनचाही वस्तु की तरफ न जा पाए तो क्या उसे बाद में दुःख मिलेगा? नहीं न

इसी को कबीर साहब कहते हैं की इन्सान यह जानते हुए भी की क्या सही है जिन्दगी में, क्या पाने लायक है और क्या छोड़ना जरूरी है। वह फिर भी उन चीजों को पकडे रखता है जो व्यर्थ है उसी को संत कबीर झूठ कहकर पुकारते हैं।

इससे आप समझ सकते हैं की एक झूठा जीवन यह नहीं की आपने 5 रूपये चुरा कर स्वीकारा नहीं, बल्कि यह जानते हुए की भी क्या सही और उसे, डर मजबूरी और स्वार्थ के चलते किया नहीं, और जो चीज़ जानते हुए की झूठी है, मिथ्या है, असत्य है उसे सच्चा मानकर जो जिए कबीर उसी को झूठा जीवन कहकर सम्बोधित कर रहे हैं।

आप जो न बदलना चाहे तो गुरु बेचारा असहाय।

गुरु का कार्य है आपको आपके जीवन के यथार्थ से परिचित कराना आपकी समस्याओं, कमजोरियों को दूर कर एक सही जिन्दगी जीने के लिए तैयार करना। पर एक समय आता है जिसके बाद गुरु भी विवश हो जाता है क्योंकि आगे का निर्णय वह शिष्य पर छोड़ देता है।

कई बार हम खुद से दुखी होकर किसी गुरु या उनकी किताबों की तरफ जाते हैं, और हमें मालूम होता है की वास्तव में समस्या कहाँ हैं? लेकिन अन्दर ही अन्दर हम जानते हैं की इस समस्या को खत्म करने के लिए मुझे अपनी ये प्यारी चीज़ छोडनी होगी तो फिर हम उसे छोड़ने से कतराते हैं।

जैसे एक शराबी इस बात से परेशान हों की उसका स्वास्थ्य लगातार क्यों बिगड़ रहा है तथा घर परिवार में उसके लड़ाई झगडे क्यों हो रहे हैं? और यह जानते हुए की मूल समस्या उसके नशे में  है, वह फिर भी अपनी लत की वजह से शराब को छोड़ नहीं पाता।

इसी प्रकार एक गुरु जो आपको आइना दिखाने का कार्य करता है, जब वह जान जाता है की जो कुछ इसे बताना था उसे बता दिया, अब सही रास्ते पर चलना उसके हाथ में है तो गुरु फिर असहाय होकर ईश्वर से प्रार्थना करता है की अब शिष्य को सद्बुद्धि दे।

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अंतिम शब्द

तो साथियों जिस गुरु के सानिध्य में हमने सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप नामक दोहा पढ़ा उनका नाम आचार्य प्रशांत है, संत कबीर पर उनके कई व्याख्यान इन्टरनेट पर उपलब्ध हैं, जिन्हें आप देख सकते हैं। हमें आशा है इस लेख को पढ़कर आपको जीवन में अधिक स्पष्टता मिली होगी। आपके लिए यह लेख उपयोगी साबित हुआ है तो कृपया इसे अधिक से अधिक शेयर जरुर करें।

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