मैं कौन हूँ | कैसे जानें सबसे सरल और उपयोगी विधि

वे लोग जो ध्यान,अध्यात्म जैसे विषयों में गहरी रूचि रखते हैं उन्हें अक्सर “मैं कौन हूँ? खुद को कैसे जानें” इस तरह के प्रश्न का सामना करना पड़ता है। ऐसे में सवाल आता है की क्या कोई ऐसी विधि है जिससे हम खुद को जान सकते हैं?

मैं कौन हूँ

यदि हाँ, तो खुद को जानने का सबसे आसान उपाय कौन सा है? क्योंकी जितने में महान ऋषि या ज्ञानी हुए हैं वे कहते हैं जो इन्सान खुद को जान गया, उसे अपने जीवन की तकलीफों का समाधान मिल जाता है।

यही नहीं हिन्दू धर्म के प्रमुख ग्रन्थ वेदांत, उपनिषदों का अध्ययन करने पर आप पाएंगे वहां पर एक ही प्रश्न है जिसको ध्यान में रखते हुए ये ग्रन्थ रचे गए हैं और वो विषय है “मैं”

और हो भी क्यों न, भीतर कोई मैं बैठा होता है न, हम सभी के भीतर जो संसार में अच्छे बुरे हर तरह के कर्म इंसान से करवाता है। प्राकृतिक, सामजिक या आर्थिक जितनी भी समस्याएं आज मनुष्य को झेलनी पड़ रही है।

उन सभी समस्याओं का असली दोषी तो इन्सान ही है, जिसने अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए अपना ही विनाश किया है। तो जब सब कर्म “मैं” के कहने पर संचालित हो रहे हैं तो इस मैं के विषय पर विस्तार से बात करना जरूरी हो जाता है।

तो अगर आप “मैं कौन हूँ” ये जानने का आसान उपाय खोज रहे हैं तो इस लेख में आपको अपने प्रश्न का सीधा उत्तर मिलने वाला है।

मैं कौन हूँ| Who Am I in Hindi

मैं कौन हूँ ये जानने के लिए पहले समझना होगा की मैं क्या नहीं हूँ।

तो सर्वप्रथम सवाल है की क्या मैं एक शरीर हूँ, जिसके 2 हाथ, दो पैर और अन्य शारीरिक अंग हैं? क्या जो मेरा शरीर है यही मेरी असली पहचान है?

जी नहीं, इस बात का प्रमाण यह है की शरीर में जो हलचल चलती है उसे आप देख सकते हैं। और देखने का अर्थ है की आप शरीर से अलग हैं।

ठीक वैसे जैसे कोई वस्तु सामने है ये कहने के लिए भी तो कोई होना चाहिए न, जब गुस्से से आँखें लाल होती है तो आप अगर थोडा भी होश में हो तो जान लेते हों न की मुझे गुस्सा आ रहा है।

तो अगर आप शरीर ही होते तो कोई ये बताने वाला नही होता न की शरीर में क्या चल रहा है?

तो अब सवाल आता है की क्या हम वो मन (माइंड) हैं जिसमें तरह तरह के विचार आते हैं? क्या हमारा मन ही हमारी असली पहचान है।

तो इस बात का भी जवाब नहीं होगा क्योंकी मन में अच्छे बुरे जो ख्याल आते हैं उसे देखने वाला भी तो है न, कोई है जो कहता है की आज दिनभर गंदे ख्याल आये और मूड ऑफ रहा।

तो कोई तो है जो मन पर यानी विचारों पर और शरीर दोनों पर निगरानी रख रहा है। वो मानो दूर कहीं बैठे सब देख रहा है वो जान रहा है मन कब डर रहा है, कब इसमें लालच और प्रेम का भाव आ रहा है।

वो ये भी देख रहा है की शरीर थक गया है या इसे आलस आ रहा है। कोई तो है हमारे ही भीतर जो शरीर से, विचारों से अलग है। वो एक दर्शक है जो सब देख रहा है।

मैं मन नहीं हूँ 

ये जानने के बाद भी की मैं मन नहीं हूँ, आप स्वयं के जीवन को देखिये, अपने एक एक काम को देखिये क्या वह मन के इशारे पर नहीं हो रहा है?

कभी मन कहता है आज खेलें तो आप खेलते हैं, आज मन कहता है आज पढ़ाई नहीं करते तो आप पढ़ते नहीं है, अधिकांश लोग मन के चलाए ही जीवन को जीते हैं।

मन में कभी बुरे ख्याल आते हैं तो वह दुखी हो जाते हैं और मन में अगर कभी झूठे ही सही ख़ुशी के विचार आ जाये तो हम खुश हो जाते हैं, और चूँकि मन की अवस्था तो लगातार बदलती रहती है।

तो अगर हमारी पहचान मन ही होती तो ये बदलती क्यों? क्योंकी जो चीज़ असली है, मजबूत है उसे कौन मिटा सकता है? पर मन तो एक छाया की भाँती है जो रंग बदलते रहता है।

इसलिए जानने वाले कह गए की

मन मन के मते न चलिये, मन के मते अनेक। जो मन पर असवार है, सो साधु कोई एक।

और भगवद्गीता में भी भगवान कृष्ण इस मन की दुष्टता के बारे में बतलाते हैं की इसके कहने पर जीवन मत जीना, ये तो इंसान को फंसाता है।

पर जो लोग इस मन को ही अपनी वास्तविक पहचान मानकर इसके कहे चलते हैं, उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, वो फिर गहरे गड्ढे में जाकर गिरते हैं।

इसलिए समझिएगा मन आपकी सच्चाई नहीं है, अतः मन के कहने पर न चलें। समझे, बूझें और फिर अपनी बुद्धि से सही चुनाव करें।

मैं कौन हूँ उपनिषद

ऋषियों के जीवन का रस, उनका प्रेम हमें उपनिषदों में मिलता है। जिसने उपनिषदों के सूत्र समझ लिए और उन्हें अपने जीवन में स्थान दे दिया समझो वह तर गया।

उपनिषदों को पढने पर आप पाएंगे “मैं कौन हूँ” नामक इस प्रश्न का जवाब ऋषि अनेक तरीकों से दे रहे हैं।

कभी शिष्यों को समझाने के लिए वे कहते हैं की अहम ब्रह्मास्मि यानी मैं ही ब्रह्म हूँ। तो कभी वो कहते हैं की तत्वमसि अर्थात वो ब्रह्म तू है।

यानी हमारे भीतर जो ये सब देख रहा है, वही दृष्टा ही तुम्हारी पहचान है। वो तो मन से भी आगे की चीज़ है, मन में तो वही सब भरा रहता है न जो हम देखते हैं, सुनते हैं।

पर जो भीतर जो साक्षी है अर्थात जो लगातार सब देख रहा है। उसका नाम नहीं, जात नहीं, उसका रंग नहीं, रूप नहीं पर वो है।

ऋषियों ने उस दृष्टा को ही आत्मा, परमात्मा, सत्य जैसे कई नाम दिए हैं। वो सब एक ही हैं।

पढ़ें: आत्मा क्या है?

खुद को कैसे जानें- आसान तरीका 

खुद की पहचान करने की एक ही विधि है, और वो विधि न यज्ञ-हवन है, न ध्यान है, वो विधि है अपनी दिनचर्या को और अपने विचारों को देखना।

साफ साफ़ ये देखना की दिनभर में क्या काम करता हूँ? किसके लिए करता हूँ? मेरे मन में क्या विचार चलते हैं? मेरी नियत कैसी है? मेरे भीतर कितना झूठ है?

जिस इन्सान के भीतर जरा भी ईमानदारी रहेगी और देखेगा की वो जीवन कैसा जी रहा है? ऐसा इंसान फिर अपनी हालत से रूबरू होने के बाद अपनी वर्तमान स्तिथि को ठीक करने के लिए अभ्यास करेगा।

वास्तव में यही खुद को जानने का और खुद को बेहतर करने की एकमात्र विधि है।

हालाँकि बहुत से लोग आपको मिल जायेंगे जो कहेंगे खुद को जानने के लिए मैं सुबह शाम दो घंटा मेडिटेशन करता हूँ। तो समझ लीजिये इन्सान पाखंडी है वो अपनी बेईमानी को छुपा रहा है।

वो अपने जीवन को नहीं बदलना चाहता।

मैं कौन हूँ? के नाम पर हो रहे पाखंड से सावधान

बहुत से लोग अध्यात्म में आकर मैं कौन हूँ? इस प्रश्न के जवाब में कहते हैं मैं असीम हूँ, अनंत हूँ, मैं निराकार ब्रह्म हूँ, मैं शिव हूँ इत्यादि।

उनकी बातों को सुनकर प्रतीत होता है जैसे किसी को गहरी साधना के बाद वास्तव में दिव्य ज्ञान हासिल हुआ है, पर ऐसे शिष्यों से और गुरुओं दोनों से सावधान रहें क्योंकि अध्यात्म के क्षेत्र में पाखंड से भरपूर गुरुओं की कोई कमी नहीं है।

वो पहले तो अपने शिष्यों से भारी फीस वसूलते हैं और उन्हें 45-50 मिनट की ध्यान की कोई विधि बताते हैं और अंत में ये कहने को कहते हैं की मैं असीम हूँ, मैं ही ब्रह्म हूँ।

इससे एक तरफ तो शिष्य के मन में ये भ्रम फैलता है की उन्हें कोई दिव्य ज्ञान मिला है, दूसरी तरफ परमात्मा, ब्रह्म जैसे शब्द जो इन्सान को जीवन में ऊँचा उठा सकते थे, उन्हीं शब्दों से बुरा बर्ताव करके वह अपनी हालत को और भी खराब कर देते हैं।

और हम ऐसे लोगों के खिलाफ इसलिए बोल रहे हैं क्योंकी उनकी बातों में कोई इमानदारी नहीं होती। भीतर से भले ही वह इन्सान पैसों का लालची हो, अपने फायदे के लिए दूसरे से बेईमानी करता हो और दफ्तर में, घर में लोगों के साथ बुरा बर्ताव करता हो।

तो ऐसी सौ कमियां वाला इन्सान जब कहता है की मैं असीम हूँ, मैं ही निराकार सत्य हूँ। तो क्या ये बात उसे शोभा देती है, नहीं न। इसलिए जब भी अध्यात्म में सुनें कोई खुद को शिव कह रहा है, सत्य कह रहा है।

ये तो ऐसे ही बात हो गई न एक चोर खुद को सबसे बेईमान इंसान साबित करने में तुला हुआ है। ऐसा करके क्या वो कभी अपनी बेईमानी का त्याग कर सकता है? नहीं न

तो जो इन्सान खुद को सत्य/ शिव कहे उसकी जिन्दगी देख लीजिये, वो क्या काम कर रहा है, किन लोगों को पढता है, किन लोगों के साथ बैठता है ये जान जायेंगे तो जरा भी आप में समझ होगी तो आपको उस व्यक्ति पर गुस्सा कम दया अधिक आएगी।

अध्यात्म का और खुद को जानने का उद्देश्य क्या है?

इन्सान के जन्म का एकमात्र उद्देश्य समझदारी, प्रेमपूर्ण और आनन्दित जीवन जीना है।

पर प्रायः हम जैसी जिन्दगी जीते हैं उसमे न तो समझ होती है, न प्रेम होता है बल्कि दुःख, बेईमानी और अज्ञान रहता है।

अतः अध्यात्मिक जीवन जीने का उद्देश्य पारलौकिक शक्तियाँ पा लेना, दैवीय ज्ञान पाकर जिन्दगी में चमत्कार करना नहीं होता।

बल्कि अध्यात्म हमें सीख देता है की इस संसार में एक आम इन्सान रहते हुए भी किस तरह अपनी बुद्धि और समझ का उपयोग कर आनन्द से भरा जीवन जियें।

कैसे दिमाग में और मन में चल रही अडचनों को दूर करके एक साफ़ और सुखी जीवन जिया जा सके।

बस इतना कुल लक्ष्य है खुद को जानने का, जब इन्सान खुद को जान लेता है तो उसे अपने स्वार्थ, अपने लालच का बोध हो जाता है और एक बार उसे अपनी सच्चाई मालूम हो गई तो फिर वो वह मूर्खता करने से बचता है जैसा वो कर रहा था।

इसलिए खुद को जानना अत्यंत आवश्यक हो जाता है।

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अंतिम शब्द

तो साथियों इस लेख को पढने के बाद मैं कौन हूँ? इस प्रश्न का सीधा और स्पष्ट उत्तर मिल गया होगा? अगर अभी भी इस लेख के विषय में मन में कोई सवाल है तो इस whatsapp नम्बर 8512820608 पर सांझा कर सकते हैं।

अध्यात्म के क्षेत्र में बहुत से ऐसे गुरु हैं और अनेकों ऐसे सवाल हैं जो आपकी आध्यात्मिक यात्रा में आपको भ्रमित कर सकते हैं। हमें आशा है इस लेख को पढ़कर आप सच्चाई के करीब आये होंगे और आपके लिए यह लेख उपयोगी साबित हुआ होगा।

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