ममता स्वार्थ है, मातृभाव प्रेम है | Chapter 15 Full Summary in Hindi

एक बच्चे के प्रति माँ की ममता होना स्वाभाविक है। लेकिन एक उम्र सीमा के बाद माँ की ममता ही उसके बच्चे के विकास में बाधा डालती है। ( ममता स्वार्थ है, मातृभाव प्रेम है Chapter 15 Summary)66

ममता स्वार्थ है, मातृभाव प्रेम है

इसलिए आचार्य जी इस लेख में हमें समझा रहे हैं की परवाह करने और ममता पर्दर्शित करने में कितना अंतर होता है? किसी इंसान को उसकी मुक्ति, आजादी से रोकना है।

तो उसमें ममता का भाव जाग्रत करके यह कार्य किया जा सकता है, आइये इस अध्याय को पढना शुरू करते हैं।

परवाह और ममता

अध्याय के आरम्भ में आचार्य जी कहते हैं देखिये परवाह का अर्थ है दूर करना, जबकि ममता का भाव आपको भलाई करने से रोकता है। इस अंतर को समझिएगा अगर मैं एक पेड़ का ख्याल रखता हूँ तो मैं क्या करूंगा उसे पानी दूंगा।

मैं ये हरसंभव प्रयास करुँगा की इसे सूरज की रोशनी मिले, ताज़ी हवा मिले और वो सब पोषक तत्व मिले जिससे इस पेड़ का विकास हो सके।

दूसरी तरफ ममता का भाव आपमें मेरे के भाव को जागृत करता है आप कहते हैं ये पौधा मुझे बड़ा प्यारा लगता है, और मैं इस पौधे को घर के अंदर ही गमले में रखूंगी।

इसका आकार ज्यादा बड़ा न हो इसके लिए मैं इसकी जड़ें काटती रहूंगी। फिर चाहे ये पौधा बोंजाई क्यों न हो जाये लेकिन रहेगा तो ये मेरे कमरे में ही! ये ममता है।

ममता जड़ें काटकर उसका विकास रोक देंगी जबकि प्रेम गमला तोड़कर लम्बा घना हो जायेगा।

प्रश्नकर्ता: तो क्या प्रक्रति में बस परवाह है?

आचार्य जी: देखो प्रकृति में ममता का स्थान है, यह जरूरी है क्योंकि एक पौधे का बीज महज एक शरीर मात्र है, उसे पोषण के लिए देखभाल की आवश्यकता होता है। और ममता का भाव जानवरों में भी होता है लेकिन यह सिर्फ एक सीमित समय के लिए होता है कुछ हफ्ते महीनों तक।

इसी तरह मनुष्य के बच्चे के जन्म लेने के बाद पता है माँ की कुछ सेंसेस आखं, नाक कान एक्टिव हो जाती हैं। इसलिए बच्चा दूर रो रहा होगा तो भले पिता को उसकी आवाज नहीं सुनाई देगी लेकिन मां को आसानी से इसका अहसास हो जाता है।

और कुछ समय बाद स्वतः वह सेंसेस ठीक हो जाती है प्रकृति भी इससे यह संदेश देती है की पालन पोषण हो गया अब ममता का भाव उसके कल्याण के खिलाफ है! वो उसके विकास में बाधा डालेगा।

इस बीच श्रोता और आचार्य जी के बीच बच्चे के विकास और ममत्व की भावना को लेकर बातचीत होती है। जिसमें आचार्य जी बताते हैं की अविभक्त परिवारों में बच्चे का माँ के साथ ज्यादा जुडाव नहीं हो पाता।

माँ- बाप बनने से पहले गुरु बनें

प्रश्नकर्ता कहते हैं बचपन से ही बच्चों को खिलौने की तरह विज्ञापित किया जाता है, जैसे बच्चा किसी चीज़ को देखने में मस्त होगा उसे जबरदस्ती “हाय” करने को कहा जाता है।

इन सब बातों पर आचार्य जी कहते हैं देखो सही माँ बाप मिलना बहुत किस्मत की बात है। उम्र बीत जाती है इस चक्र से बाहर आने में

श्रोता: अगर माँ -बाप शब्द को गुरु में बदल दें तो ये समस्या अपने आप खत्म हो जाएगी।

आचार्य जी: हाँ, बिलकुल माँ बाप वही लोग बनें, जो पहले एक गुरु होने की पात्रता रखते हो, तभी एक बच्चे के आप आदर्श और कल्याणकारी माता पिता बन सकते हैं।

लेकिन दुर्भाग्यवश जो लोग पात्रता रखते है उनमें गुरु बनने को लेकर फिर कुछ खास रूचि होती नहीं, अगर होंगे तो फिर उनके एक या दो ज्यादा नहीं, सोचिये न कितना मजेदार हो जब एक बुद्ध का बच्चा घूम रहा हो, मीरा की बेटी नाच रही हो, पर ऐसा होता नही है।

श्रोता: अगर बुद्ध का बच्चा हो तो वो अपने पिता के साथ थोड़ी रहेगा!

आचार्य जी: बिलकुल, यूँ तो बुद्ध का भी एक पुत्र था लेकिन वो तब था जब वो सिद्धार्थ थे! बुद्ध जैसा गुरु जिसे मिल गया समझो वो तर गया।

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अंतिम शब्द

तो साथियों इस तरह अध्याय में आचार्य जी हमें संदेश देते हैं की ममता स्वार्थ है, मातृभाव प्रेम है, हमें आशा है सम्बन्ध पुस्तक का यह सारांश आपके लिए उपयोगी साबित होगी और आप इस लेख को अपने प्रियजनों के साथ साँझा भी करेंगे।

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