क्या आप जानते हैं, ऐतरेय उपनिषद के इस महावाक्य प्रज्ञानं ब्रह्म में जिन्दगी का गहरा सीक्रेट छिपा हुआ है, जो इस रहस्य को जान गया उसको अपने सभी समस्याओं का समाधान मिल जाता है।
सनातनियों के सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थों में उपनिषदों का स्थान हमेशा से ही शीर्ष पर रहा है, हालाँकि लोगों के बीच ये इतने लोकप्रिय नहीं हो पाए।
जिसके पीछे मुख्य वजह यही है की समाज में प्रायः किसी भी स्कूल, संस्थान में उपनिषदों की शिक्षा नहीं दी जाती। अतः ऐसे में हम इन महावाक्यों का सच्चा और व्यवहारिक अर्थ जान ही नहीं पाते।
परिणाम यह होता है की हम उपनिषदों के महावाक्यों को बस एक शब्द की तरह देखने लगते हैं, और जान ही नही पाते की जिन उपनिषदों को हमारे वैदिक धर्म का आधार माना गया उसके पीछे कोई तो खास वजह होगी।
जी हां, उपनिषद आदरणीय, पूजनीय हैं हर उस इन्सान के लिए फिर चाहे वह किसी भी धर्म, पंथ या समुदाय से समबन्ध रखता हो। और ये बात आपको तब समझ आएगी जब आप प्रज्ञानं ब्रह्म जैसे महावाक्यो के अर्थ को समझेंगे।
प्रज्ञानं ब्रह्म का अर्थ
ऐतरेय उपनिषद के तृतीय अध्याय, प्रथम खण्ड, श्लोक क्रमांक २ में वर्णित प्रज्ञानं ब्रह्म का हिंदी अर्थ प्रज्ञान ही ब्रह्म है।
प्रज्ञान को समझने से पूर्व हमें ज्ञान को समझना होगा। देखिये किसी विषय का ज्ञान होने के लिए सबसे पहले इन्द्रियों के माध्यम से उस विषय को देखा या सुना जाता है, फिर उस विषय का प्रभाव मन पर पड़ता है।
और मन इस सूचना को हमारे mind में फीड कर देता है ताकि भविष्य में उस विषय की बात हो तो हमारी मेमोरी तुरंत हमें पिछले अनुभव के बारे में बता सके।
तो इस तरह संसार में हम विभिन्न वस्तुओं का इंसानों का और संक्षेप में कहें तो प्रकृति में मौजूद हर चीज़ का ज्ञान प्राप्त करते हैं।
लेकिन ऋषि उपनिषद के इस महावाक्य प्रज्ञानं ब्रह्म के माध्यम से हमें कह रहे हैं की तुम ज्ञान का भी अतिक्रमण कर उसके पार चले जाओ।
यानि तुम सिर्फ विषय को मत देखो, विषय को देखने वाला भीतर कौन है ये भी जान जाओ। और ये जान गए तो फिर सब कुछ साफ़ हो जायेगा।
क्योंकि इस संसार में वस्तुतः ऐसा कुछ नहीं है जो इंसान को डरा सके, उसे दुखी कर सके या फिर उसे खुश कर सके।
लेकिन मन किसी न किसी विषय के साथ अच्छा या बुरा सम्बन्ध बना ही लेता है, इसलिए ऋषि कह रहे हैं की संसार में बुरा कुछ नहीं है, चीजों को बुरा बनाने वाला तुम्हारे भीतर बैठा है उसको जान लो यही प्रज्ञान है।
जी हाँ चलिए इसी बात को आगे जरा उदाहरण की सहायता से विस्तार से समझते हैं।
विषय के साथ साथ विषयेता को देखना सीखो
संसार में अनेक विषय हैं, और उन विषयों के अलग अलग नाम, रंग, रूप, आकार हैं। और अधिकांश लोग संसार में दुःख झेल रहे हैं उन्हें लगता है इन विषयों में ही कोई कमी है, कोई बुराई है जिसकी वजह से वे किसी चीज़ को बुरा और किसी चीज़ को अच्छा बताते हैं।
पर ऋषि कह रहे हैं की विषय बुरा नहीं है, विषय की तरफ देखने वाला बुरा है।
उदाहरण के लिए आपके सामने ढेर सारा रुपया पड़ा है।
अब आप जान रहे हैं की जिन्दगी चलाने के लिए पैसा जरूरी है। अतः यहाँ पैसे की उपयोगिता का पता होना ज्ञान है।
लेकिन नोटों की गड्डीयां देखकर आपके भीतर से आवाज आई जो कह रही है की जल्दी उठा लो इस पैसे को वरना कोई और ले जायेगा या मन में आ रहा है की इस पैसे को चुरा लूं।
और ठीक इसी पल आपने देख लिया की कुछ है मन में जो बड़ा लालची और डरा हुआ है जो पराये पैसे पर नजर रखे हुए है, तो इस तरह आपने भीतर मौजूद उस जानवर की हकीकत जान ली यही प्रज्ञान है।
संक्षेप में कहें तो किसी भी विषय को देखकर मन पर पड़ने वाले प्रभाव पर नजर रखना ही प्रज्ञान है।
तो ऋषि कहते हैं की जब दो आँखों से बाहर के विषय को देखो तो एक आँख अपने भीतर भी बनाये रखो, इससे तुम्हें किसी भी समस्या में फंसने से छुटकारा मिलेगा।
क्योंकि एक बार जान गए की जिस काम को करने के लिए बहुत उतावले हो रहे हो, उसे करने वाला कौन है, किस मकसद से वो कर रहा है तो फिर ठहर जाओगे। अब वो करोगे जो सही है।
उदाहरण के लिए कोई चीज़ बड़ी प्यारी है, दुर्लभ है, और आसपास कोई नहीं है जो तुम्हें उसे चुराते पकड सके।
लेकिन ठीक इसी पल आपने जान लिया की बेटा ऐसा किया तो बड़ी बेइज्जती होगी तो ये ज्ञान है।
लेकिन आपने ये समझ लिया की कौन है जिसे ये चीज़ बड़ी लुभावनी और आकर्षक लग रही है, क्या कोई भीतर लालची जानवर बैठा है?
तो जैसे ही आपने ये प्रश्न किया तो आपने इच्छा को नहीं बल्कि इच्छा रखने वाले पर ही हमला कर दिया। अब आप कैसे चुरा लोगे उसे। इसी तरह जीवन के एक एक कर्म को देखो और पूछो खुद से क्यों कर रहा हूँ? किसकी खातिर कर रहा हूँ? अगर नहीं करूंगा तो क्या हो जायगा?
जैसे ही आप ये पूछने लगेंगे तो बहुत से ऐसे व्यर्थ के काम जो जिन्दगी में आप कर रहे थे उन्हें करना छोड़ देंगे। आप जान जायेंगे की भीतर मोह, लालच, डर, शर्म, अज्ञान था जो मुझसे ये करवा रहे थे, अब मैं नहीं करूंगा।
खुद को देख लेना ही ब्राह्मी स्तिथि है
हमें ये दुनिया टुकड़ों में दिखाई देती है इसलिए कभी हमारे मन पर कोई एक विषय तो कभी दो दो विषय एक साथ छाये रहते हैं।
जैसे कभी पैसा मन पर छाया रहता है तो कभी पैसा के साथ साथ कामवासना भी। अतः ऐसी स्तिथि में भीतर एक युद्ध होने लगता है और मन को यह समझ नहीं आता दोनों में से कौन सा विषय सही है?
तो जानने वाले कह गए की समस्या विषय में बिलकुल नहीं है, बल्कि समस्या देखने वाले के भीतर है। किस भाव से आप किसी विषय से रिश्ता बना रहे हैं, किस भाव से उसका उपयोग कर रहे हैं ये आपने जान लिया तो तुम फिर मुक्त हो जाओगे।
अगर इस भाव से किसी विषय को देख रहे हो की ये मेरे मन की बेचैनी कम कर देगा तो ऐसा सम्भव नहीं है क्योंकि संसार में क्या कोई भी ऐसा शरीर या वस्तु है जिसको पा लेने से इन्सान की बेचैनी खत्म हो जाती है।
नहीं है न, इसलिए ऋषि कह रहे हैं की कर्म से ज्यादा जरूरी है उस कर्ता को देखना जो आपसे हर कार्य को करता है, तो दो आखें बाहर खुली हो तो साथ में तीसरी आँख हो जो भीतर को नजर बनाये रखें।
वो देखती रहे की किसी विषय का मन पर कोई गलत प्रभाव तो नहीं पड़ रहा है, कोई विषय आपके भीतर मोह,डर,लालच तो नहीं पैदा कर रहा। बस एक बार जान गए तो फिर समझ जाओगे की क्या करना सही है।
इसलिए ब्राह्मी स्तिथि अर्थात प्रज्ञान की स्तिथि वही है जब आप साक्षित्व हो गए अर्थात आपकी नजर कर्ता पर बनी हुई है।
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अंतिम शब्द
तो साथियों इस लेख को पढने के पश्चात प्रज्ञानं ब्रह्म का अर्थ अब आप भली भांति, समझ गए होंगे। लेख को पढ़कर जीवन में स्पष्टता आई है तो इस लेख को सोशल मीडिया पर सांझा करें। साथ ही विषय के समबन्ध में कोई सवाल या सुझाव है तो आप इस मुद्दे पर Whatsapp नम्बर 8512820608 पर बातचीत कर सक्ते हैं।