मन क्या है? मन को काबू/ शांत कैसे रखें?

मन हर पल शांत रहे और हमें सुख का अनुभव हो ऐसा हम सभी चाहते हैं पर न चाहते हुए भी मन हमेशा किसी न किसी चीज़ से जुड़कर अशांत हो ही जाता है, वास्तव में मन क्या है?हम कभी जानने की जिज्ञासा नहीं रखते और न ही कोई हमें इसका सीधा उत्तर दे पाता है।

मन क्या है

एक बार यदि हम समझ पायें मन को और इसमें फैली अशांति को तो संभव है हमारे मन में दिनभर में आने वाले बेवजह के प्रश्नों का हल हम निकाल पाए, आइये इस अध्याय में मन को बारीकी से समझकर, जीवन में शांति लाने का प्रयास करते हैं।

मन क्या है? शरीर में मन कहाँ पर होता है?

मन शरीर का वह अद्रश्य भाग है जिसे शरीर के अन्य अंगों की भाँती देखा या छुआ नहीं जा सकता लेकिन इसके बावजूद वह हर मनुष्य में मौजूद होता है, मन का दूसरा नाम चेतना है। साथ ही इसे अंग्रेजी में माइंड भी कहा जाता है।

मन यानी माइंड एक स्पेस होता है, यह एक खाली स्थान है जहाँ पर अनगिनत विचार आते रहते हैं, जिन विचारों से मन प्रभावित होकर सुखी अथवा दुखी होता है।

इसे आप ऐसे समझ सकते हैं की जैसे एक खाली कमरा होता है तो उस खाली कमरे को देखकर हम तुरंत ही उसमें कुछ सामान डाल देते हैं।

इसी तरह हम अपनी आँखों से जो देखते हैं, कानों से सुनते हैं, महसूस करते हैं वो सारी चीज़ें सूचनाओं के रूप में मन में आ जाती हैं और फिर मन उन्हीं चीजों से भर जाता है और उन्हीं के अनुरूप जीवन में फैसले लेता है।

यही कारण है की किसी इन्सान द्वारा लिए गए फैसलों के पीछे उसको अतीत में हुए अनुभव बड़े जिम्मेदार होते हैं।

उदाहरण के लिए अतीत में कोई व्यक्ति किसी सडक दुर्घटना में घायल हो जाता है, तो जाहिर सी बात है दोबारा सडक में गाडी चलाने से वो डरेगा क्योंकि उसके मन में डर गहराई घुस चुका है।

संक्षेप में कहें तो मन इन्द्रियों का गुलाम है जो कुछ भी उसकी इन्द्रियों को अनुभव होता है वही मन में संग्रहित हो जाता है।

मन और दिमाग में क्या अंतर है?

मन और दिमाग में 5 प्रमुख अंतर निम्नलिखित हैं।

#1. दिमाग अर्थात ब्रेन बॉडी का एक भौतिक अंग है जिसमें चिकित्सकों द्वारा आवश्यक बदलाव किये जा सकते हैं। जबकि मन शरीर का अभौतिक हिस्सा है जो मनुष्य की इन्द्रियों से आकर्षित होकर विभिन्न क्रियाओं की निर्धारित करने में भूमिका निभाता है।

#2. शरीर के बारे में जानने की जिज्ञासा रखने वाला तत्व मन है, अर्थात मन वो है जो हमें दिमाग के बारे में इस संसार और शरीर के बारे में जानने के लिए उत्सुकता पैदा करता है। जबकि दिमाग बॉडी का भौतिक अंग है जो हमें विभिन्न चीजों को याद रखने में मदद करता है।

#3. दिमाग हमें किसी विषय पर गहराई से अन्वेषण करने में मदद करता है, जबकि मन अपनी इच्छाओं के अनुरूप उस कार्य को करने या न करने का फैसला सुनाता है।

#4. दिमाग का प्रयोग कर किसी भी वस्तु, व्यक्ति, घटना को लम्बे समय तक याद रखा जा सकता है जबकि मन उस घटना के प्रभाव की जानकारी हमें देता है।

#5. संसार में अनेकों लोग, घटनाएँ और चीजें याद रखने योग्य है परन्तु व्यक्ति का मन उन्हीं चीजों को याद रखता है जिन्हें वह प्राथमिकता देता है।

गीता के अनुसार मन क्या है?

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥58॥

अध्याय 2, भगवदगीता के 58वें श्लोक में कृष्ण कह रहे हैं की जैसे एक कछुआ अपने अंगो को संकुचित करके उन्हें अंदर की तरफ मोड़ लेता है। उसी तरह जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को विषय भोगों (सांसारिक प्रलोभनों) से खींच लेता है वह दिव्य ज्ञान में स्थिर हो जाता है।

गीता में भगवान कृष्ण हमें बतला रहे हैं की जो व्यक्ति अपने मन के कहने पर नहीं चलता जो व्यक्ति मन की सच्चाई जानते हुए इसके द्वारा दिए गए प्रलोभनों से आकर्षित न होकर जो सच्चा है, सही है उस काम को करता है।यानी जो मनुष्य सत्य (परमात्मा) के आधार पर फैसला लेता है, ऐसे मनुष्य का मन उसका दास बन जाता है।

इसलिए एक आत्मज्ञानी का मन उसके इशारों पर चलता है! जिस दिशा में आत्मज्ञानी के कदम बढ़ते हैं, उसी दिशा में मन भी उसके पीछे पीछे चलने लगता है। 

मन का स्वरूप क्या है?

जीवित मनुष्य में कामनाओं का संचार कर उसमें आशा की किरणें भरने वाला अद्रश्य अंग है मन, मन ही है जिसे इस संसार में भांति-भांति के रंग, रूप, वस्तुएं दिखाई देती है।

जिनसे आकर्षित होकर यह एक विषय से दूसरे विषय के बारे में जानने के लिए लालायित रहता है।

मनुष्य के भीतर बैठा मै अर्थात अहम भाव ही उसे संसार में भाँती भाँती की वस्तुओं और यहाँ तक की इन्सान का भोग करने के लिए आकर्षित करता है।

मनुष्य के द्वारा किये जाने वाले कर्मों में मन का अहम योगदान होता है, दैनिक जीवन में अधिकांश कर्म मनुष्य द्वारा मन के आवेग में ही किये जाते हैं, मन की इच्छा के बगैर मनुष्य सही कार्य भी नहीं कर पाता है।

अतः मन जब मनुष्य में हावी हो जाता है तो मनुष्य अपराध करने से भी संकोच नहीं करता इसलिए गीता में मन को स्थिर करने पर बल दिया गया है।

अर्धचेतन मन क्या है?

चेतना की वह अवस्था जब मन पूरी तरह जाग्रत न हो पर फिर भी कार्यों को अंजाम दिया जाये यह अर्धचेतन मन कहलाता है।

किसी भी क्रिया को अगर आप लगातार कुछ दिनों तक करते हैं तो एक समय बाद वह क्रिया तुम्हारी आदत बन जाती है अतः उसे करने में लगने वाली मेहनत स्वतः (ऑटोमेटिक) कम होती है।

उदहारण के लिए अगर आप निरंतर अभ्यास करके तेजी से टाइप करना सीख जाते हैं तो कुछ समय बाद आप कीबोर्ड में देखे बिना भी अँगुलियों की सहायता से टाइप कर लेते हैं।

इसी तरह अगर आप साइकिल चलाना सीखना शुरू करते हैं तो हमारा ध्यान पेंडल पर या हेंडल पर होता है पर एक बार सीख जाये तो कब ब्रेक मारनी है, पेंडल कितने चलाने हैं इत्यादि यह काम ऑटोमेटिक होने लगता है।

हमारे शरीर में मन का अधिकांश हिस्सा (90 प्रतिशत) अर्धचेतन होता है और इसी वजह से हम तेजी से कई कार्यों को निपटा पाते हैं।

इसलिए कहते हैं किसी भी अच्छी आदत का निर्माण करना है तो उसे कुछ दिनों तक करना शुरू कर दीजिये कुछ समय बाद वह चीज़ आपकी आदत बन जाएगी।

मन काबू में कैसे करें? 100% कारगर विधि

बहुत से लोग आज इस प्रश्न के उत्तर की तलाश में हैं, परन्तु अभी तक उन्हें सफलता नहीं मिली है, लेकिन अगर आप निम्न बातों का विचार कर ध्यान से समझते हैं तो समस्या अभी खत्म हो सकती है।

सर्वप्रथम खुद से पूछिए कौन है वह जो इस मन पर काबू पाना चाहता है? जवाब आयेगा मैं हूँ।

पर जिसे आप वास्तव में काबू करना चाहते हैं वो कोई और नहीं अपितु आपकी छाया है, आप जैसे हैं ठीक वैसा ही आपका मन होगा।

यदि आप स्वयं को कमजोर डरा हुआ मानते हो जाहिर है आपका मन भी डरा हुआ होगा, ये ऐसी ही बात है जैसे कोई कूड़े के ढेर में खड़े होकर कहे बदबू से दूर कैसे जाएँ?

उपाय यही है न की तुम कूड़े के ढेर से वापस आ जाओ बदबू भी मिट जाएगी। इसी तरह अगर आप खुदको बदल दें तो मन भी बदल जायेगा।

यानी आप खुद को जैसा मानते हैं वैसा ही आपका मन हो जाता है। अन्यथा कल आप पूछोगे की डर को काबू कैसे करें?

इसका मतलब होगा की आपने खुद को कमजोर माना हुआ है इसलिए हर तरफ आपको डर दिखता है, अब इस डर से आप तभी बाहर आ सकते हैं न जब आप खुद को यह कहेंगे की मैं कमजोर नहीं हूँ।

तो देखिये न आपने खुद को क्या मान लिया है? जिस दिन आपने खुद को वो मानना छोड़ दिया, मन स्वतः काबू में आ जायेगा। जब आप अपनी पहचान से मुक्त हो जायेंगे तो समस्या भी ख़त्म हो जाएगी।

जो व्यक्ति इस बोध के साथ जियेगा की मै स्वयं में पूर्ण हूँ, तृप्त हूँ मुझमें कोई कमी नहीं है वही व्यक्ति इस संसार में बिना डर के जी पायेगा और फिर उसे मन को काबू करने की आवश्यकता नहीं होगी।

उस फल की भाँती जिसमें बाहर से सम्भव हो धुल मिटटी आ जाये पर अन्दर ही अन्दर वो जानता है मैं रसदार हूँ।

ऐसे आप भी जीवन जिओ, बाहर से भले किसी चीज़ की कमी हो या न हो पर अन्दर ही अन्दर आप पूर्ण रहो।

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अंतिम शब्द

तो साथियों इस पोस्ट को पढने के बाद मन क्या है? इस प्रश्न पर आपको पूर्ण जानकरी भली भांति मिल गई होगी, उम्मीद है यह जानकारी आपके लिए फायदेमंद साबित हुई होगी कृपया इस लेख को सोशल मीडिया पर शेयर भी कर दें।

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