हम अक्सर सुनते हैं की परमात्मा ही इन्सान को शक्ति देता है, वही सभी की समस्याओं को मिटाता है पर वास्तव में परमात्मा क्या है? कौन है? कहाँ है? मालूम नहीं होता तो हम यूँ ही सुनी सुनाई बातें कहना शुरू कर देते हैं।
पर यदि मैं कहूँ की परमात्मा का जो मानसिक मॉडल हमने बनाया हुआ है, उसमें अधिकतर बातें झूठी हैं, भ्रामक हैं तो आपके लिए यकीन करना मुश्किल होगा।
क्योंकि प्रायः बचपन से हम जिन बातों को सुनते आ रहे हैं हमारे लिए वही बातें मान्यता बन जाती हैं और एक अन्धविश्वास की भांति हम उसे मानने लगते हैं, बिना यह समझ बूझे की इस बात में कितनी सच्चाई है।
पर आज हम जरा उपनिषद, भगवद्गीता जैसे धार्मिक ग्रन्थों के अध्ययन के आधार पर परमात्मा की सच्चाई को समझेंगे तो आशा है इस लेख को ध्यानपूर्वक अंत तक जरुर पढेंगे।
परमात्मा कौन है?
सत्य के रूप में जो सर्वदा शाश्वत मौजूद है उसी को परमात्मा कहा गया है। दूसरे शब्दों में सच्चाई, शान्ति, बोध, प्रेम, करुणा यही सभी परमात्मा के अन्य नाम हैं।
इसलिए परमात्मा कोई बाहरी भौतिक वस्तु या शरीर नहीं है जिसे हम बाहर खोजें वो हमारे भीतर सत्य, आनंद, प्रेम के रूप में हमेशा से ही मौजूद है।
पर चूँकि हमने परमात्मा को सत्य को अपने से बाहर का दर्जा दे दिया अतः उसी को पाने के लिए फिर इंसान परमात्मा की तलाश इस संसार में करता है।
हम प्रायः परमात्मा को किसी ऐसे आसमानी देवता के रूप में देखते हैं, जो आसमान से इस पृथ्वी के सभी लोगों के कर्मों पर नजर रख रहा है और जरूरत आने पर हिसाब करेगा।
यही मुख्य कारण है की उसी भगवान या परमात्मा के आगे सिर झुकाकर नमित होने के लिए फिर हम मंदिरों में विभिन्न धर्मिक स्थानों पर जाते हैं, ताकि उसे खुश कर सकें।
लेकिन परमात्मा कोई बाहरी देवता या कोई मूर्ती नहीं है जिसको फल-फूल चढाकर आप उसका गुणगान करें, वास्तव में परमात्मा भीतर है जो एक दिए की भाँती हमेशा आपको अंधकार से प्रकाश की तरफ बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
परमात्मा को कैसे पायें? परमात्मा की प्राप्ति
अपने भीतर की सच्चाई जानकार अपने जीवन की हकीकत हो जानकर जो मनुष्य सच्चाई को अपना आदर्श बना ले मात्र वही परमात्मा को पाने की योग्यता रखता है।
देखिये, हम जिस तरह जीवन जीते हैं उसमें कई तरह के झूठ शामिल होते हैं, जानते बूझते हम वो काम करते हैं जिनमें हमें पहले कई बार धोखा,निराशा मिली है। अतः यह जानकार की मेरे मन की हालत क्या है, कहाँ पर मैं गलती कर बैठता हूँ और सच्चाई के सामने मेरा सर क्यों झुक जाता है।
उसके बाद जो व्यक्ति सच्चाई की तरफ बढ़ने का निश्चय कर ले समझ लीजिये उसने परमात्मा को पा लिया।
क्योंकि परमात्मा कोई ईश्वर, देवता नहीं हैं जिनका ध्यान करने से या सुबह शाम ईश्वर का नाम लेने से वो हमारे समक्ष एक दिन प्रकट होंगे और हमें दर्शन देंगे।
जी नहीं, परमात्मा हमारे भीतर सदा से मौजूद है, हमारे भीतर सच्चाई के प्रति उठने वाला प्रेम, अशान्ति को लेकर मन का विचलित होना और झूठ को स्वीकार न करना यह सब दर्शाता है की हम सभी परमात्मा के करीब जाना चाहते हैं।
तो अब सवाल आता है जब परमात्मा हमारे ही भीतर मौजूद है तो फिर परमात्मा को इंसान पा क्यों नहीं लेता? तो सुनिए जहाँ राम हैं वहीं राक्षस भी निवास करते हैं।
अतः यह जानने के बावजूद भी सही कर्म क्या है? उसे करने में जब हमें आलस आता है, डर लगता है, मन विरोध करता है, मोह आता है तो ये संकेत हैं उस राक्षस के जो हमारे ही भीतर मौजूद है जो हमें हमेशा सत्य से दूर रखने की कोशिश करता है।
इसीलिए परमात्मा को पाने के लिए हमें दुनिया के किसी राक्षस से लड़ाई नहीं करनी होती, अगर करनी भी है तो उससे पहले स्वयं अपने भीतर के राक्षस को मारना होता है। जिसने साफ़ साफ़ जान लिया की देवता और असुर दोनों हमारे भीतर मौजूद हैं।
और जिसके अन्दर इतना साहस हो की सच्चाई के लिए अर्थात परमात्मा के लिए जो उन असुरों से लड़ने के लिए उनका विरोध सहने के लिए तैयार हो जाए मात्र वही परमात्मा को पाने का अधिकारी होता है।
गीता के अनुसार परमात्मा कौन है?
गीता में श्री कृष्ण जीवात्मा यानी चेतना को सम्बोधित करते हुए कहते हैं की जिस प्रकार मनुष्य एक वस्त्र को त्यागकर दूसरे वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर नए शरीरों को प्राप्त होती है।
अब यहाँ समझने वाली बात है की कृष्ण यहाँ जिसे जीवात्मा कहते हैं उसे आमतौर पर मनुष्य आत्मा समझता है, अर्थात अपने मन को ही वह आत्मा मानकर कहता है की मेरी आत्मा दुखी है, भगवान इनकी आत्मा को शांति मिले इत्यादि। पर वास्तव में आत्मा अर्थात और जीवात्मा दोनों अलग अलग हैं।
आत्मा से आशय सत्य से है और आत्मा अजर है अमर है, अविनाशी है। दूसरी तरफ जीवात्मा से आशय मन/अहम्/अहंकार से है।
हम अपना जीवन अहम भाव में जीते हैं न की ये मेरा शरीर है, मेरा घर है इत्यादि। और यही भाव हर संसार के हर मनुष्य में होता है, एक निश्चित समय के बाद लोगों की मृत्यु होती है पर जैसे ही नया जीव पैदा होता है उसमें अहम भाव अपने आप आ जाता है।
इसलिए सभी शरीरों में जीवात्मा यानि अहंकार वास करता है। और हमारे दुखों , परेशानियों की असली वजह यह अहम ही है, अगर अहंकार न तो फिर दुःख महसूस करने वाला भी नहीं होगा।
जी हाँ परमात्मा या आत्मा तो आनंद की अवस्था में सदा से ही है, उसे क्या फर्क पड़ता है आपको किसी से सम्मान मिले या ठेस। लेकिन मन को बहुत फर्क पड़ता है इसलिए यह कभी खुश तो कभी दुखी होता है।
अतः इस मन से मुक्ति मिलने का अर्थ है की अब आप मन की इच्छाओं और इशारों पर नहीं बल्कि सच्चाई का सेवक (नौकर) बनकर जीवन जियेंगे। अतः परमात्मा को समर्पित होने का अर्थ है आप सत्य की सेवा में हाजिर हो गए।
इसलिए कृष्ण भगवान गीता में कह रहे हैं इस अहम भाव से मुक्ति पाकर आत्मस्थ होना ही मनुष्य का लक्ष्य होना चाहिए।
परमात्मा साकार है या निराकार
परमात्मा निराकार हैं जो सभी तरह के रंग, रूप, चित्र, आकार से अलग है। जिसका न कभी जन्म हुआ और न ही वह कभी मृत्यु को प्राप्त होगा। अतः सत्य को निराकार कहा गया है।
इससे आप समझ सकते हैं की परमात्मा की पूजा भी नहीं की जा सकती, क्योंकि जो परम सत्य है उसका ध्यान मनन करने के लिए उसके गुणगान करने के लिए भी हमारे पास उसका कोई चित्र या छवि होनी चाहिए।
पर चूँकि मन जिसकी कल्पना नहीं कर सकता, आँखें जिसे देख नहीं सकती उसी परम सत्य को परमात्मा कहा गया है।
और परमात्मा हमारे लिए विशेष इसीलिए है क्योंकि वो हमसे एक अलग आयाम का है, अगर वो हमारे ही जैसा होता जिसे हम देखते, महसूस करते तो फिर उसे पाकर हमारे मन की प्यास नहीं बुझती।
ठीक उसी तरह जैसे संसार में हम साकार रूप में जिन भी चीजों को देखते हैं, उन्हें पा लेने से हमें पल भर की शांति मिलती है और फिर मन किसी और दिशा में भागता है उसी तरह परमात्मा को भी पा लेने भर से काम हो जाता।
अतः परमात्मा दूर हैं, हम उन्हें अपने गंदे हाथों से छू नही सकते, उनके बारे में कुछ कह नहीं सकते, कल्पना नहीं कर सकते इसलिए परमात्मा दूर होते हुए भी हमारे लिए बेहद आवश्यक हैं।
क्योंकि वो न हो तो फिर मन शांति कैसे पायेगा, वो न हो तो फिर मनुष्य के पास संसार में दर दर भटकने के सिवा क्या हाथ आएगा? वो है तो एक आस है जीने की।
आत्मा और परमात्मा का दर्शन
आत्मा और परमात्मा दो अलग अलग नाम हैं, पर वास्तव में दोनों एक ही हैं। सत्य का ही दूसरा नाम है परमात्मा जिसे कभी आत्मा कहकर अभिव्यक्त किया जाता है तो कभी कृष्ण या राम कहकर सम्बोधित किया जाता है।
हमारी चेतना को जो सच्चाई की तरफ लेकर जाए उसी को हम अपनी सुविधा के अनुरूप कोई भी नाम दे सकते हैं। हमारा जैसा मन होता है वो हमेशा छोटी चीजों में फंसे रहने को आतुर रहता है, उसे कोई बड़ी चीज़ मिल भी जाए तो वह उससे दूर होने के प्रयास करता है।
जैसे महाभारत में दुर्योधन के पास चुनाव था कृष्ण यानि सच्चाई को अपने पास रखने का लेकिन जैसा हमने कहा मन हमारी छोटी चीजों की तरफ भागता है तो उसने उनकी नारायणी सेना मांग ली।
दूसरी तरफ अर्जुन ने यहाँ तक दिया की मुझे तो आप ही चाहिए, आपका कुछ नहीं चाहिए। इससे आप समझ सकते हैं जब मन में सत्य के प्रति इतना प्रेम आ जाए तो फिर स्वयं परमात्मा को भी तुम्हारा हाथ थामना पड़ता है, वो भी हमारे निकट आने को मजबूर हो जाता है।
वो कहता है अब कुछ भी हो जाए ये मेरे बिना चैन नहीं पायेगा तो फिर वो हमें सहारा देता है। पर चूँकि हमें तो इसी संसार में यहाँ के छोटे-छोटे खिलौनों से आकर्षण होता है और हमें लगता है बिना परमात्मा के भी तो जिन्दगी अच्छी चल रही है, मौज मस्ती हो रही तो क्या जरूरत है परमात्मा की?
तो फिर परमात्मा भी नहीं आते जीवन में वो कहते हैं जब तुझे संसार ही इतना भा रहा है तो तू अभी यही मजे ले। तू मुझे पाकर क्या करेगा।
इसलिए कहा गया है की परमात्मा यानि सत्य हमसे दूर नहीं हैं, वास्तव में हम खुद सत्य से दूर हैं, अगर हमारी नियत हो और हम पात्रता दिखाएँ तो परमात्मा को पाया जा सकता है।
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अंतिम शब्द
तो साथियों इस लेख को पढने के पश्चात परमात्मा कौन है? आत्मा क्या है, परमात्मा को कैसे पायें? इस विषय पर विस्तार से आपको पूरी जानकारी मिल गई होगी, लेख के समबन्ध में यदि आपका कोई प्रश्न है तो कमेन्ट में बताइए साथ ही लेख को शेयर भी कर दें।
Bahut Achhe Sir 🙏🏻
इतना अच्छा बताया है आपने