सर्वं खल्विदं ब्रह्म का अर्थ जानें और लाभ उठायें!

ज्ञानियों ने कहा है यदि आप उपनिषदों के श्लोकों को कंठस्थ याद नहीं रख सकते तो तुम महावाक्यों को वाक्य याद रखो। आज हम एक प्रमुख महावाक्य सर्वं खल्विदं ब्रह्म का अर्थ बेहद सरल शब्दों में इस लेख में समझेंगे।

सर्वं खल्विदं ब्रह्म

हजारों वर्ष बीत गए हैं लेकिन इस आधुनिक युग में भी  में कमी नहीं आई है, आज भी उपनिषदों के सूत्र और श्लोक हमारे लिए उतने ही लाभदाई हैं,जितना की वह उस समय थे।

क्योंकि समय के साथ भले ही मानव सभ्यता का विकास हुआ हो, पर आज भी मनुष्य के भीतर बेचैनी, उसके भीतर का डर, लालच जैसी वृतियां (tendency) आज भी हैं। इसलिए उपनिषदों में मानव की मूल समस्या का जो समाधान दिया गया था।

वो फ़ॉर्मूला आज भी ऐसे ही काम करता है, इसलिए उपनिषद कालातीत कहे जाते हैं, वो किसी धर्म विशेष के लिए लोगों के लिए नहीं बल्कि हर उस इंसान के लिए हैं जो जीवन में परम आनंद पाना चाहते हैं।

पिछले लेख में हमने तत्वमसि नामक महावाक्य को समझा था पर आज हम विस्तार में एक अन्य महावाक्य पर चर्चा करने जा रहे हैं।

सर्वं खल्विदं ब्रह्म का अर्थ जानें और जीवन को समझें 

छान्दोग्य उपनिषद के अध्याय 3 के चतुर्दश खंड के श्लोक क्रमांक २ में वर्णित सर्वं खल्विदं ब्रह्म का हिंदी अर्थ सब ब्रह्म ही है होता है।

अर्थात इस संसार में जो कुछ हमें दिखाई देता है वो सब एक ही है, वह ब्रह्म है। पर चूँकि मन हमारा हमेशा कुछ नया अनुभव करने की इच्छा में रहता है।

इसलिए वो तमाम चीजों में भेद करता है, उसे इस संसार में सभी वस्तु, विषय अलग अलग दिखाई पड़ते हैं, कभी वह पदार्थों में भेद करता है तो कभी वह मनुष्यों के बीच अंतर खोज लेता है।

कभी वो इधर भागता है तो कभी किसी और दिशा की तरफ जाता है, क्यों? क्योंकि उसे इस संसार में सब कुछ अलग थलग (विभाजित) नजर आता है। उसे लगता है ये पा लूं तो मन को शांति मिल जाएगी इसे छोड़ दू तो मुझे चैन मिलेगा।

और पूरी जिन्दगी ये दौड़ जारी रहती है, इसी को आप व्यवहारिक तौर पर ऐसे कह सकते हैं की कोई इंसान पैसे के पीछे भागता है, तो कभी स्त्री के पीछे लेकिन दोनों की इच्छा एक ही है शांति, कोई पैसे में उस सुकून को तलाश रहा है तो कोई स्त्री या पुरुष के पीछे।

और इस सच्चाई को मुखरित करते हुए ज्ञानी जन कह रहे हैं तुम्हारा मन तो अनुभव का प्यासा है, वो हर दम कुछ नया अहसास करना चाहता है एक तरह से उसकी मजबूरी है की वो इस संसार में विभिन्न चीजों को अलग थलग देखे।

अगर मन को सब कुछ एक जैसा दिखने लगा तो फिर उसका भागना बंद हो जायेगा न, और ऐसा हो गया तो अनुभव करने की जो उसके भीतर ललक है वो कहाँ से उठेगी? इसलिए मन अपनी प्यास बुझाने के लिए इन्सान को इधर से उधर भेजता है।

सबकुछ ब्रह्म है ऐसे जानो 

अब सवाल आता है की क्या ज्ञानी जनों को संसार में सब कुछ एक जैसा दिखाई देता है, उन्हें पानी और पेड़ में अन्तर नहीं नजर आता? उनके भीतर पुरुष और महिला की पहचान करने की भी शक्ति खत्म हो जाती है?

आखिर यह आम व्यक्ति के लिए कैसे सम्भव है की वो संसार में सब विषयों (subjects) को एक ऐसा जैसा देखे?

देखिये एक ज्ञानी/ ऋषि और एक आम सांसारिक व्यक्ति में अंतर यह नहीं होता की ज्ञानी पुरुष की आँखें जगत की तमाम चीजों का भेद करना भूल जाती हैं।

जी नहीं एक सांसारिक व्यक्ति की भाँती ऋषि को भी टेबल, पहाड़, सडक, भोजन में अंतर दिखाई देगा, ये नहीं की वो टेबल को ही ग्रहण करने लग जायेगा।

पर एक सांसारिक व्यक्ति की भाँती ज्ञानी के मन में संसार के अलग अलग विषयों को लेकर रूचि खत्म हो जाती है। आम व्यक्ति संसार में विषयों के पीछे इसीलिए जाता है न, ताकि उन विषयों को पा लेने से उसका मन शांत हो जायगा।

जबकि ऋषि या ज्ञानी व्यक्ति को ये समझ आ जाता है की संसार में जो कुछ है वो तो फीका है, यहाँ ऐसा कुछ नहीं जो मन को तृप्त कर पायेगा।

इसलिए फिर वो संसार में कोई वस्तु हो या किसी इंसान को उतना ही महत्व देता है, जितना की जरूरत है। अब वो टेबल को टेबल की तरह देखेगा, गाडी को गाडी की दृष्टि से देखेगा ये नहीं की उसे घर ले आउंगा तो मुझे चैन मिल जायगा जी नहीं।

अब ज्ञानी के मन में संसार के विषयों के प्रति आकर्षण नहीं होता इसलिए संसार से कुछ पाने की लालसा खत्म हो जाती है।

अब ऐसा नहीं की वो जीवन जीना छोड़ देगा नहीं वो जिएगा पर इसलिए नहीं की इस दुनिया में धन दौलत, सम्मान, ताकत इत्यादि पा लूँगा इसलिए नहीं। अब वो यूँ ही बिंदास जीता है उसपर किसी का दबाव नहीं होता, कोई कर्तव्य उसके पास नहीं होता।

पर ऐसा नहीं की ज्ञानी व्यक्ति फिर सन्यास धारण कर एकांत में ध्यान करने लग जायेगा। जी नहीं, अब वो कर्म करेगा बहुत कर्म करेगा इतना की एक आम इन्सान सोचता भी नहीं।

पर वो काम अपने खातिर नहीं होंगे वो कर्म निष्काम भाव से दुनिया की भलाई के लिए होंगे।

ब्राह्मी स्तिथि श्रेष्ठ है

ऐसा व्यक्ति जिसकी अब संसार के विषयों में कोई रूचि नहीं रहती, ऐसी अवस्था ब्रह्मलीनता या ब्राह्मी स्तिथि कहलाती है।

अब ऐसे इंसान के सामने यदि आप सोने का गिलास और स्टील के गिलास रख दो तो वो दोनों गिलास को समान भाव से देखेगा। वो जानता है सोने का गिलास कीमती जरूरी है पर उस कीमत को पा लेने से मुझे तृप्ति नहीं मिल पाएगी।

अब जब इन्सान को इस तरह दुनिया में सभी चीजें एक जैसी दिखाई देती हैं, कुछ भी यहाँ बहुत कीमती और बहुत घटिया नहीं लगता तो चीजों को समानता की दृष्टि से देखने का भाव आ जाता है।

अब मन में उसके कोई कामना नहीं रही किसी चीज़ की, अब तो मात्र कर्म हो रहे हैं।

इसे पढ़कर आपको भगवदगीता में भगवान कृष्ण की कही ये बात याद आ रही होगी की हे अर्जुन मात्र कर्म करो, फल पर तुम्हारा अधिकार नहीं।

जी हाँ अब आप समझ सकते हैं की आत्मज्ञानी या ब्रह्म में लीन होने का ये मतलब नही की शांत अवस्था में किसी पहाड़ पर जाकर बैठ जाओ।

नहीं व्यक्ति अगर ब्रह्म में लीन है तो फिर अब उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य होगा मानव कल्याण। क्योंकि अपने लिए तो कर्म करना उसने छोड़ दिया है अब उसके मन में कोई इच्छा ही नहीं बची।

तो अब वो शांत नहीं बैठेगा वो किसी बड़े और महत्वपूर्ण काम को करेगा, बड़ी श्रृद्धा और मेहनत से करेगा पर उस काम के बदले में कुछ पाने की आशा उसके मन में बिलकुल नहीं होगी।

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तो साथियों इस लेख को पढने के पश्चात सर्वं खल्विदं ब्रह्म का अर्थ आप भली भाँती समझ गये होंगे, यदि आपको उपनिषदों के इस महावाक्य का गूढ़ अर्थ मालूम हुआ है, तो कृपया इस लेख को अधिक से अधिक शेयर अवश्य कर दें।

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