श्रीमदभगवद गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन को निष्काम कर्म करने की बात कहते हैं, परन्तु यह निष्काम कर्म क्या है? क्या बिना किसी उम्मीद के कोई कर्म करना निष्काम कर्म है?
आखिर निष्काम कर्म की परिभाषा क्या है? इसका सही अर्थ आज हम इस पोस्ट में समझेंगे।
दरअसल, निष्काम कर्म को लेकर ढेर सारी बातें सुनने को मिलती हैं। पर वास्तव में सकाम कर्म और निष्काम कर्म के बीच का अंतर बेहद कम लोगों को पता है।
आइये गीता में भगवान कृष्ण द्वारा निष्काम कर्म को लेकर कहे गए औचित्य को समझते हैं।
भगवदगीता के अनुसार निष्काम कर्म क्या है?
निजी लाभ की इच्छा किये बिना किसी ऊँचे अभियान/ कार्य में अपना सर्वस्व समर्पित करना ही निष्काम कर्म कहलाता है।
सामान्यतया हम जो भी काम करते हैं वो इसलिए करते हैं ताकि उस कार्य को करके हमारी इच्छा पूरी हो सके।
परन्तु भगवदगीता कहती है की हमारी इच्छाएं ही तो हमें दुःख में जीने के लिए मजबूर करती हैं।
मनुष्य का मन उस आकाश की भाँती है जो असीम है, अनंत है! इस मन की एक इच्छा पूरी करो तो ये तुरंत एक नयी इच्छा खड़ी कर देता है।
और फिर मनुष्य अपनी अंधी कामनाओं को पूरा करने के प्रयास में तमाम तरह के दुःख, कष्ट झेलता है और व्यर्थ जीवन गवा देता है।
लेकिन जो व्यक्ति लाभ, हानि, सुख दुःख, की परवाह किये बिना समझदारी से, ईमानदारी से सही काम को करने का चुनाव करता है तो ऐसा मनुष्य सही मायने में निष्काम कर्मयोगी होता है।
अर्थात कोई व्यक्ति यदि कुछ पाने की उम्मीद से नहीं बल्कि कोई काम इसलिए कर रहा है क्योंकि काम अच्छा है।
उस काम को करके समाज का, लोगों की भलाई होगी! और यदि वह इस शुभ काम को बिना कुछ पाने की इच्छा से कर रहा है तो ये निष्काम कर्म होगा।
भगवत गीता के निष्काम कर्म सिद्धांत की व्याख्या?
अब तक हमने समझा की किसी आवश्यक/महत्वपूर्ण कार्य को आशारहित होकर करना ही निष्काम कर्म कहलाता है।
पर अब सवाल आता है की भगवान कृष्ण को निष्काम कर्म के उपदेश देने की जरूरत क्यों पड़ी?
जैसा की आप जानते हैं की इन्सान इच्छाओं का पुतला होता है एक के बाद एक इच्छा लगातार उसके मन में घूमती रहती है और वो बिना जाने समझे उन इच्छाओं को पूरी करने के लिए निकल पड़ता है ।
और ऐसा करते हुए उसे मौत आ जाती है पर उसकी इच्छाएं खत्म नहीं होती। पर इसी दुनिया में अगर कोई व्यक्ति निष्काम कर्म करते हुए यानी बिना फल की आशा रखे बिना जीता है तो वो इच्छाओं से मुक्त हो जाता है।
निष्काम कर्म का अर्थ है की अब व्यक्ति को जीवन में कुछ ऐसा ऊँचा लक्ष्य मिल गया है की उसे अब अपनी इच्छाओं का ख्याल ही नहीं रहता।
वो भली भाँती जानता है की जिस काम को मैं कर रहा हूँ इस काम को करके कोई मुझे आर्थिक या सामजिक लाभ नहीं मिलेगा पर क्योंकि वो काम सही है. जरूरी है इसलिए उस काम को बड़ी मेहनत से करने में वो डूब जाता है।
तो जहाँ एक सांसारिक व्यक्ति अपनी इच्छाओं के लिए काम करता है वहीँ निष्काम कर्मयोगी परमात्मा के लिए काम करता है माने वो सच्चाई के लिए कर्म करता है।
और मौज में जीता है, सोचिये क्या हालत होगी उस इन्सान की जिसे अतीत का दुःख न हो, और भविष्य की चिंता न हो वो तो अपने वर्तमान में ही मौज के साथ जी रहा है।
ऐसी जिन्दगी हो जाती है एक निष्काम कर्मयोगी की।
तो यदि आपके जीवन में बहुत सारी चिंताएं, दुःख हैं और ऐसे में आप भी निष्काम कर्म करके जीवन में सच्चाई के रास्ते पर चलना चाहते हैं तो अब सवाल आता है की
निष्काम कर्म कैसे करें?
बिना आत्मज्ञान के निष्काम कर्म करना सम्भव नहीं है, जो व्यक्ति स्वयं को नहीं जानता वो नहीं जानता ये मन क्या है? संसार क्या है? सत्य क्या है? और झूठ क्या है?
ऐसा इन्सान किसी ऊँचे काम को भी नहीं पहचान सकता, उसे सही काम और गलत काम में फर्क ही नहीं मालूम होगा।
ऐसा मनुष्य भले ये कहे की वो कुछ पाने की आशा के बिना कर्म कर रहा है तो उसे निष्काम कर्म घोषित नहीं किया जा सकता।
निष्काम कर्म करने के लिए व्यक्ति को अपनी सच्चाई पता होना बेहद जरूरी है, जो व्यक्ति ये नहीं जानता की वो कौन है? उसे जन्म क्यों मिला है? और निष्काम कर्म से उसे क्या लाभ होगा?
ऐसा व्यक्ति किसी के कहने पर निष्काम कर्म करेगा तो फिर उस कर्म से कोई लाभ नहीं होगा। इसलिए कहा जाता है की स्वयं को जाने बिना दुनिया में कोई भी काम करना व्यर्थ है।
आइये इसी बात को एक उदाहरण से समझाते हैं।
मान लीजिये मैं एक लालची इन्सान हूँ जिसे पैसे का बड़ा लालच है तो ऐसी स्तिथि में यदि मैं कोई भी कर्म करूँगा तो जाहिर सी बात है मन में यही रहेगा की मुझे लाभ होगा की नहीं।
मैं नौकरी काम कैसा है? इस बात पर नहीं बल्कि सैलरी के आधार पर तय करूंगा।
इसी तरह मैं अगर कामुक व्यक्ति हूँ तो मैं कोई भी कर्म इसलिए करूँगा न ताकि उस काम को करके मेरी वासना की पूर्ती हो।
इसी तरह किस व्यक्ति के मन में क्या है? उसकी सच्चाई वो स्वयं जान सकता है, और एक बार जो ये जान गया उसकी हकीकत क्या है तो फिर वो उस हकीकत को सुधारने का प्रयत्न भी करेगा।
अगर वो ऐसा नहीं करता तो वो निष्काम कर्म नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए यदि मैं लालची हूँ तो जाहिर सी बात है अगर मेरे कर्म करने से मेरे भीतर का लालच खत्म नहीं होता तो मेरा कर्म ही व्यर्थ है।
इसलिए जो व्यक्ति दुनिया में निष्काम कर्म करना चाहता हो, जीवन में बिना कुछ पाने के उद्देश्य से कोई शुभ कार्य करना चाहता हो उनके लिए स्वयं को जानना बेहद जरूरी है।
एक बार जो व्यक्ति जान लेता है की वो कौन है फिर वो ये भी देख लेता है की इस दुनिया में कौन सा ऐसा कर्म है, काम है जिसे करने से जीवों का, जानवरों का मानवता की भलाई है।
और फिर वो उस ऊँचे और शुभ काम को पूरी ताकत से करना शुरू कर देता है, अब ऐसे इन्सान को कोई भी रोकने आये वो इन्सान रुक नहीं सकता।
निष्काम कर्मयोग के अनुसार “स्थितप्रज्ञता” क्या है?
भगवदगीता अध्याय 2, श्लोक 54 में अर्जुन भगवान कृष्ण से स्तिथप्रज्ञ व्यक्ति के बारे में सवाल करते हुए पूछते हैं
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।
अनुवाद: हे केशव । परमात्मामें स्थित स्थिर बुद्धिवाले मनुष्यके क्या लक्षण होते हैं? वह स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?
जवाब में भगवान कृष्ण कहते हैं
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥
अनुवाद: सुख दुःख, आकर्षण विकर्षण से प्रभावित हुए बिना जो मनुष्य हर स्तिथि में समान भाव (समभाव) में रहकर जीता है ऐसे स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य को स्तिथप्रज्ञ कहकर सम्बोधित किया जाता है।
इस प्रक्रार श्री कृष्ण अर्जुन को यह संदेश देते हैं की जो व्यक्ति निर्मल मन से आत्मस्थ होकर (सत्य की राह में) जीता है, और राग द्वेष से प्रभावित हुए एकसमान भाव में जीता है ऐसे मनुष्य को स्थिरप्रज्ञ कहकर सम्बोधित किया जाता है।
निष्काम भाव से कर्म करना वास्तव में कर्म कुशलता है विस्तारपूर्वक समझाइए!
जब किसी कर्म के पीछे व्यक्ति का उद्देश्य किसी तरह का फल पाना, ख़ुशी पाना नहीं होता अपितु उसके द्वारा कर्म इसलिए किया जाता है क्योंकि वो कर्म आवश्यक है और कल्याणकारी है।
तो इस भाव के साथ उसके द्वारा किया गया प्रत्येक कर्म सुन्दर होता है, बेहतर होता है।
प्रायः जब भी व्यक्ति किसी कामना की पूर्ती के लिए कर्म करता है तो उसका ध्यान कर्म से अधिक इच्छापूर्ति पर होता है।
उदाहरण के लिए बहुत से लोग नौकरी इसलिए नहीं करते क्योंकि उन्हें वो काम पसंद होता है, बल्कि वे नौकरी में मिलने वाली सैलरी के कारण घिस घिस कर काम करते हैं।
दूसरी तरफ निष्काम कर्म कहता है की तुम कर्म का चयन व्यक्तिगत लाभ की इच्छा से न करो, बल्कि काम का चुनाव आप उस कर्म की उपयोगिता के आधार पर करो।
भले किसी काम को करने से आपको स्वयं बहुत ज्यादा लाभ न हो, परन्तु अगर वो काम सच्चा है, कल्याणकारी है तो आपके द्वारा उस कार्य को करने का फैसला करना ही श्रेष्ट है।
उदाहरण के लिए कोई ऐसी कम्पनी है/संस्था है जिसे देखकर लगता है की ये संस्था दुनिया का सबसे अच्छा काम कर रही है।
तो ऐसी संस्था में भले आपको ज्यादा काम करना पड़े और बहुत पैसे न मिले तब भी आप उस संस्था से जुड़ जाते हैं तो अब आप अपने जीवन का कीमती समय एक सही काम को दे पायेंगे।
अब आपको फर्क नहीं पड़ेगा कितनी सैलरी है, कितना काम है। चूँकि वो काम सुन्दर है, जरूरी है आप वो काम करोगे।
इसलिए निष्काम कर्म करने वाले व्यक्ति को परिणाम की चिंता करनी नहीं पड़ती, वो जानता है जो सही है, उचित है वो वह कर्म कर रहा है अब भला परिणाम से क्या लेना देना।
सकाम कर्म और निष्काम कर्म में अंतर
सकाम और निष्काम कर्म दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं, संसार में अधिकांश लोग सकाम कर्म में ही लिप्त रहते हैं। जिस वजह से वे लाभ-हानि के फेर में बंधे रहते हैं आइये देखते हैं इन दोनों कर्मों के बीच मूल अंतर को।
सकाम कर्म | निष्काम कर्म |
जब भी किसी कामना या इच्छा के वशीभूत होकर हम कोई शारीरिक या मानसिक कर्म करते हैं तो वह सकाम कर्म कहलाता है। | दूसरी तरफ निष्काम कर्म बिना कुछ पाने की लालसा के होता है, वो काम ठीक होता है इसलिए उसे किया जाता है। |
सकाम कर्म एक इंसान अपने या अपने प्रियजनों के लिए करता है। | दूसरी तरफ निष्काम कर्म में किसी खास व्यक्ति का नहीं बल्कि समस्त मानवता का हित होता है अर्थात यह कर्म सार्वजनिक कल्याण के लिए होता है। |
जब कोई कार्य शुरू करने से पहले सोचा जाये उसका परिणाम क्या होगा और फिर उस कर्म की तरफ बुद्धि को संचालित किया जाए ये सकाम कर्म है। | पर निष्काम कर्म को चूंकि अंजाम से फर्क नही पड़ता इसलिए परिणाम की फिक्र किये वो शुभ कर्म किया जाता है। |
निष्काम कर्म किसी तरह के सुख को पाने के लिए नहीं किया जाता है! | दूसरी तरफ सकाम कर्म के पीछे मनुष्य का मुख्य मकसद सुख पाना होता है। |
सकाम कर्म इसलिए किया जाता है क्योंकि व्यक्ति अज्ञानी होता है। | निष्काम कर्म तभी किया जा सकता है जब मनुष्य को आत्मज्ञान हो! |
संक्षेप में कहें तो जो कार्य कोई फल पाने की खातिर किया जाए वो सकाम कर्म है और जिस काम को करने में इच्छा ही मिट जाए, अर्थात जो धर्म की खातिर, सच्चाई की खातिर किया जाए वो निष्काम कर्म है |
क्या निष्काम कर्म में फल पाने की आशा नहीं होती?
भगवदगीता में श्री कृष्ण अर्जुन को जब निष्काम कर्म के विषय में समझाते हैं तो कहते हैं की निष्काम कर्म करने वाला व्यक्ति भविष्य में फल पाने और उस फल का स्वाद चखने की इस आशा के साथ कर्म नहीं करता।
अब ऐसे में कुछ लोगों के मन में यह सवाल आता है की भविष्य में परिणाम सोचे बिना, ध्यान लगाकर काम करना कैसे सम्भव होगा?
देखिये, कोई भी व्यक्ति निष्काम कर्म तभी करता है जब उसे आत्मज्ञान होता है अर्थात जब वह अपने जीवन की सच्चाई को साफ़ साफ़ देख लेता है और उसे अहसास हो जाता है की कौन सा कार्य है जो करना इस समय करना उचित है।
अब वह व्यक्ति बड़ा ध्यान लगाकर उस कर्म को करता है, अब चाहे उसे भविष्य में फल मिले या चोट, अगर चोट मिलती है।
तो उसे एक पल के लिए लगेगा की मुझे सही काम के बदले में चोट मिल रही है पर वो अंततः समझ जाएगा की सही कर्म करने का परिणाम कभी गलत नही होगा।
आज मुझे भले लग रहा हो, मेरे साथ गलत हो रहा है, पर वास्तव में ठीक हो रहा है।
उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति निष्काम भाव से अपने शहर की गंदगी साफ करने का प्रयत्न करता है, अब जाहिर है उसका उद्देश्य है मन लगाकर साफ़ सफाई के इस कार्य को करना!
अब इसका परिणाम कुछ भी हो उसे क्या फर्क पड़ता है।
इसलिए निष्काम कर्म करने वाला व्यक्ति न तो सुख की ज्यादा परवाह करता है और न ही दुःख की तरफ ज्यादा ध्यान देता है।
उसे तारीफ़ मिले या बुराई वह इसपर ध्यान देने की बजाय उस कर्म को करता है जिसे करना उसका धर्म/कर्तव्य है।
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FAQ~ निष्काम कर्म क्या है? से जुड़े पूछे जाने वाले प्रश्न
निष्काम कर्मयोगी बनने के लिए जरूरी है आत्मज्ञान, बिना खुद को जाने आप किसी भी ऊँचे काम को पूरी ईमानदारी से नहीं कर सकते।
अंतिम शब्द
तो साथियों इस तरह इस लेख को पढने के पश्चात आप समझ गए होंगे की निष्काम कर्म क्या है? निष्काम कर्म और सकाम कर्म में क्या अंतर हैं? लेख को पढ़कर संतुष्टि हुई है तो कृपया इस लेख को शेयर करना मत भूलियेगा।