गीता के अनुसार स्वधर्म क्या है | मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म

बचपन से ही हमें स्वधर्म का पालन करने के लिए कहा जाता है, पर क्या अपने लक्ष्य, उद्देश्य को पाने के लिए पूरा प्रयास करना ही स्वधर्म माने अपना धर्म है? आइये जानें गीता के अनुसार स्वधर्म क्या है?

गीता के अनुसार स्वधर्म क्या है

आजकल इन्टरनेट पर और तमाम तरह की धार्मिक पुस्तकों में आप स्वधर्म का अर्थ ढूँढेंगे तो पायेंगे सभी में स्वधर्म को लेकर अलग अलग बातें कही गई हैं। ऐसे में पाठक के लिए सच्चा अर्थ ढूंढ पाना मुश्किल हो जाता है।

अतः आज हम हिन्दू धर्म के श्रेष्टतम ग्रन्थ श्रीमदभगवद गीता से स्वधर्म का सच्चा और सटीक जानेंगे। गीता के 18वें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को स्वधर्म के बारे में विस्तार से बताते हैं, चलिए जरा बारीकी से इस श्लोक का अर्थ समझते हैं।

गीता के अनुसार स्वधर्म क्या है?

अध्याय 18, श्लोक संख्या 47

श्रेयान्स्वधर्मों विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्

अनुवाद: अच्छी प्रकार आचरण किये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता।।

आइये इस श्लोक की विस्तृत व्याख्या समझते हैं।

स्वधर्म माने अपना धर्म। जो कर्म तुम्हें तुम्हारे दुखों, परेशानियों से मुक्ति दिलाये जान लीजिये उस कर्म को करना ही आपका धर्म है।

अपने धर्म का पालन करने का यह अर्थ बिलकुल नहीं होता की आपको दोस्तों ने, समाज ने, परिवार ने कुछ बता दिया और आप उनकी बातों को सुनकर वैसे ही कर्म करने लगे।

जी नहीं बाहर के व्यक्ति को तो छोडिये स्वयं जिसे आप मेरा मन, मेरे विचार, मेरी फीलिंग्स कहते हैं अगर आप उनके कहने पर कर्म करते हैं तो जान लीजिये ये स्वधर्म नहीं है।

स्वधर्म मात्र तब है जब आप जानते हैं की सही क्या है? और चुपचाप उस कर्म को करते हैं फिर चाहे उस कर्म को करते हुए दुःख, निराशा कुछ भी हो आप उस कर्म को अपना धर्म माने सच्चाई जानकर चुपचाप करते हैं।

स्वयं देखिये युद्धभूमि में खड़े श्री कृष्ण योद्धा अर्जुन को भी यही तो संदेश दे रहे हैं न की अर्जुन दुःख आये, निराशा हो कुछ भी हो इसे सहन कर युद्ध करो क्योंकि इस समय अन्याय के खिलाफ लड़ना ही तुम्हारा धर्म है।

भगवान कृष्ण अर्जुन को कहते हैं की हे महाबाहो! यदि स्वधर्म का पालन करते हुए आपकी मृत्यु भी हो जाए तो वह शुभ है।

स्वधर्म कहता है आप हारें या जीतें इससे फर्क नहीं पड़ता आपने सही कर्म, सही युद्ध लड़ा की नहीं यह अधिक महत्वपूर्ण है। अतः उस धर्मयुद्ध के परिणाम के तौर पर अर्जुन को भले जीत मिलती या हार, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अर्जुन ने धर्म का साथ देकर युद्ध किया यही उसका स्वधर्म है।

अगर आप जिन्दगी में बिना कुछ पाने की आशा किये बिना कोई सच्चा/ऊँचा काम नहीं कर रहे तो जान लीजिये आप स्वधर्म का पालन नहीं कर रहे! यह जानते हुए की किसी काम को करने से देश का, समाज का लाभ हो सकता है।

और आप उस काम को करने से पीछे हट रहे हैं, उसकी बजाय आप सिर्फ अपनी इच्छाओं को पूरा करने में लगे हुए हैं तो ऐसा करके आपने स्वधर्म का पालन नहीं किया।

गीता के अनुसार परधर्म क्या है?

जब कर्मों का चयन सच्चाई के आधार पर न होकर सुख या दुःख के आधार पर हो तो परधर्म कहलाता है।

गीता के अनुसार परधर्म क्या है

सरल शब्दों  में समझें तो जब हम जरूरी कार्य को कठिन समझकर उसे न करने का फैसला लेकर किसी ऐसे छोटे, व्यर्थ के काम को पकड़ लेते हैं जिसे करने में हमें ख़ुशी मिलती है हमारा अहंकार फूलता है उसी को परधर्म कहा गया गया है।

स्वधर्म जहाँ आपको सिखाता है की जीवन में जो सबसे श्रेष्ट है, सबसे आवश्यक है उस कर्म को करें, फिर चाहे वो अच्छा लगे या बुरा लगे।

 पर क्योंकि हम डरे हुए लोग हैं हम सच्चाई पर नहीं मन के चलाए चलते हैं। मन हमारा हमेशा हमें आसान और आरामदायक चीजों को करने के लिए प्रेरित करता है अतः अधिकांश लोग जो पृथ्वी में जीवन जीते हैं वो परधर्म को ही अपनाते हैं।

वे परधर्म के रास्ते पर इसीलिए चलते हैं ताकि उन्हें आनंद मिलेगा, ख़ुशी मिलेगी पर ऐसा नही होता, उल्टा गलत रास्ते पर चलने से सुख तो नहीं मिलता इन्सान को, उसकी जिन्दगी का कीमती समय, उर्जा और संसाधन भी बर्बाद हो जाते हैं। संक्षेप में कहें तो जिन्दगी ही व्यर्थ चली जाती है।

भगवान कृष्ण अर्जुन को इसलिए परधर्म भयावह है, कह रहे हैं।

कार्य का चयन इच्छा पर नहीं आवश्यकता पर होना चाहिए|

आजकल के कई बड़े इन्फ़्लुएसर और तथाकथित गुरु लोगों को इस बात की सलाह देते हैं की काम वो करो जिसमें आपका इंटरेस्ट हो, जिसे करने में आपको ख़ुशी मिलती है। और सम्भव है आप भी इस बात का समर्थन देंगे।

पर यह बात कितनी खोखली है, आप इस उदाहरण से समझ सकते हैं मान लीजिये आपका कंप्यूटर में शौक था और आप कंप्यूटर इंजीनयर बन गए और आप अच्छी खासी तनख्वाह ले रहे हैं।

लेकिन एक दिन आपके घर की बिल्डिंग में आग लग जाती है और परिवार का कोई सदस्य कमरे के अंदर ही हो, अब दमकल के कर्मचारी को आने में और आग बुझाने में कुछ समय लगेगा।

पर उसके आने तक क्या आप खड़े होकर यह सोचेंगे की मेरा इंटरेस्ट तो कंप्यूटर में है?

नहीं न, आप झट से अन्दर घुस जायेंगे और दूसरे की जान बचाने की खातिर अपने आप को भी रिस्क में डाल देंगे।

पर आपने तो कोई आगे बुझाने की कोई ट्रेनिंग नहीं ली थी और न आपके पास फायर प्रूफ जैकेट थी फिर कैसे आप दूसरे की जान बचाने के लिए अन्दर घुस गए?

इसलिए न क्योंकि आपके मन में परिवार के प्रति प्रेम था। जो ये साबित करता है की अगर आपके भीतर का प्रेम आपको वो काम भी करने के लिए मजबूर कर देता है जो आपने सीखा भी नहीं होता।

 इसी तरह दुनिया आज कई तरह की आपदाओं से घिरी हुई है, पृथ्वी में रोजाना कई नन्हे मासूम जीव मर रहे हैं, ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है, ऐसी भयावह स्तिथि में कई ऐसे काम हैं जो इंसान करते हुए इस पृथ्वी को बचाने की कोशिश कर सकता है।

तो अब आप खुद यह निर्धारित कर सकते हैं की आज के समय में मनुष्य का परधर्म अपना पंसदीदा काम करना है या फिर संकट के समय में ऐसा प्रोजेक्ट/ काम करना है जिससे इस समाज का, दुनिया का और पूरी पृथ्वी का लाभ हो सके। फैसला आपका है….

सही कर्म करने से क्या आशय है?

अपनी समझ और योग्यता के अनुरूप आपको जीवन में जो कुछ भी बेहतर से बेहतर, ऊँचे से ऊँचा लगता है वही सही कर्म है।

सही कर्म क्या है

उदाहरण के लिए आप एक शिक्षक हैं तो आपका स्वधर्म ये पता लगाना है की किस तरह से छात्रों को उपयोगी से उपयोगी बात सरल और स्पष्ट शब्दों में समझाई जाए ताकि वो तथ्य या जानकारी को समझ सकें।

हालाँकि कई बार हमें यह समझ आ जाता है की जीवन में कुछ है जो ऊँचा है, जरूरी है पर हमारी योग्यता, शिक्षा उस काम के अनुरूप नहीं होती।

ऐसे में हमें उस काम को करने से पीछे नहीं हटना चाहिए क्योंकि वाकई यदि आपको कार्य के प्रति प्रेम है तो इन्सान समय के साथ वह सब चीजें सीख लेता है जो उस काम को करने के लिए जरूरी होती है।

देखिये दुनिया में बहुत से ऐसे लोग हैं जो बुरे कार्यों को अंजाम देने के लिए अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हैं, लेकिन सवाल है की क्या हम सही कार्य करने के लिए अपनी बुद्धि का उपयोग नहीं कर सकते।

अतः जब मनुष्य को इस बात का बोध हो जाए की कोई सही चीज़ है, जो अपने आलस और पसंद, नापसंद से भी ज्यादा जरूरी है तो मनुष्य फिर निस्वार्थ भाव से उस कर्म को करता है।

FAQ~स्वधर्म से जुड़े अक्सर पूछे जाने वाले सवाल

श्री कृष्ण के अनुसार धर्म क्या है?

मन को सच्चाई तक ले जाना ही धर्म है, मन ही है जो मनुष्य को तमाम तरह की इच्छाओं, दुखों से घिरे रहने में मजबूर करता है, अतः उसी मन को सच्चाई तक ले जाना धर्म कहलाता है।

गीता दूसरे धर्म के बारे में क्या कहती है?

गीता का संदेश किसी विशेष पन्थ/समुदाय के लोगों के लिए नहीं है, बल्कि गीता हर उस व्यक्ति को धर्म का पाठ पढाती है जो एक सही और सच्चा जीवन जीना चाहता है! गीता कहती है सत्य ही धर्म है।

परधर्म का अर्थ

परधर्म माने दूसरे का धर्म अर्थात जो व्यक्ति समझदारी से नहीं बल्कि दूसरे के कहने पर कर्म का चयन करता है वह परधर्म कहा जाता है।

गीता के अनुसार दुख का कारण क्या है?

मन की इच्छाएं ही सभी दुखों का मूल कारण है, इंसान को सुख की ओर आकर्षित कर यह मनुष्य को तमाम तरह के बन्धनों में डालती है और उसे सच्चाई से दूर रहने के लिए मजबूर करती हैं।

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अंतिम शब्द

तो साथियों इस लेख को पढने के बाद गीता के अनुसार स्वधर्म क्या है? आप भली भाँती समझ चुके होंगे, इस लेख के प्रति आपके मन में कोई प्रश्न है तो आप नीचे कमेन्ट बॉक्स में बता सकते हैं, साथ ही आपके लिए लेख उपयोगी साबित हुआ है तो इसे अधिक से अधिक शेयर भी कर दें।

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