सत्य, सच्चाई जीवन जीने के लिए आवश्यक मानी जाती है, पर हर किसी के लिए सत्य की परिभाषा और अर्थ अलग अलग है, इस लेख में हम धर्म और अध्यात्म की दृष्टि से जानेंगे सत्य क्या है?
इस भूमि पर कई ऐसे महापुरुष और ज्ञानी हुए हैं जिन्होंने सत्य की खोज और सच्चाई को अपना जीवन समर्पित कर दिया। पर आम भाषा में सत्य और इमानदारी का अर्थ भिन्न होता है जबकि अध्यात्म में सत्य का अर्थ बिलकुल अलग है!
सत्य क्या है? सत्य की परिभाषा
सांसारिक जीवन में सत्य से आशय आखों से देखी जाने वाली वस्तु या विषय के तथ्य से होता है। आपको आँखों से कोई सामान या व्यक्ति दिखा तो आप उसे वैसे ही परिभाषित करेंगे जैसा आपको दिखाई देगा।
यानि अगर किसी बच्चे के पास 100 रूपये हैं और वह कहता है 100 रूपये है तो हम कहेंगे ये सच बोल रहा है क्योंकि फैक्ट ये है की उसके पास सौ रूपये है। अर्थात हम तथ्य को ही सत्य मान लेते हैं।
अर्थात इन्सान की इन्द्रियो को जो दृश्य दिखाई देता है, उस दृश्य को परिभाषित करना ही सांसारिक सत्य कहा गया है।
पर चूँकि अध्यात्म का सम्बन्ध दिखाई देने वाले विषय (दृश्य) से नहीं अपितु देखने वाले (दृष्टा) से होता है अतः अध्यात्म कहता है की अगर वाकई सच का पता करना है तो सिर्फ आपको दृश्य की ही नहीं अपितु दृष्टा (देखने वाले) की भी बात करनी होगी।
क्योंकि सारा दुःख या प्रसन्नता तो देखने वाले को है न तो सिर्फ दृश्य की बात करना ठीक नहीं है।
तो जहाँ संसार दृश्य को देखकर किसी बात को सच तो किसी को झूठा कहता है वहीँ दूसरी तरफ आध्यात्म दिखाई देने वाले दृश्य से भी एक कदम आगे निकलकर कहता है की हम दृष्टा की भी बात करेंगे।
अगर देखने वाला सही है, अर्थात उसकी नियत ठीक है, उसके मन में लालच, स्वार्थ नहीं है तभी हम उसे सच मानेंगे अन्यथा नहीं।
उदाहरण के लिए आपकी आँखों के सामने चार बकरियां हैं ये एक फैक्ट है। अब हो सकता है की एक शाकाहारी इन्सान के लिए वो बात सामान्य सी हो पर वहीँ पर एक कसाई हो अगर वो कहता है की 4 बकरियां हैं।
तो चूँकि कसाई अपने फायदे के लिए जीव को मारना चाहता है तो अध्यात्म की नजर में कसाई झूठा है क्योंकि उसके मन में मन में हिंसा है, वो जानवरों की हत्या करना चाहता है।
इसी तरह कोई इन्सान है जिसे 1 हजार रूपये सडक पर मिलते हैं, और वो उन पैसों का इस्तेमाल गलत कार्यों जैसे नशा करने इत्यादि में उड़ाता है तो अध्यात्म की नजर में वो एक झूठा व्यक्ति है।
क्योंकि वो पैसा जो उसे मिला था उसे एक सही काम के लिए खर्च करना था पर उसने उसे गलत चीजों में लगा दिया। तो इस तरह आप कह सकते हैं की कोई व्यक्ति अगर सच जानते हुए भी गलत कार्यों को कर रहा है तो समझ लीजिये अध्यात्म की दृष्टि में वो सच्चा नहीं है।
अध्यात्म की नजर में मात्र वही सच्चा है जिसका मन साफ़ है, जिसके भीतर झूठ नहीं मात्र सच्चाई है। जो स्वार्थ, लालच, डर के खातिर नहीं बल्कि सच्चाई की खातिर काम कर रहा है मात्र वो सच्चाई में स्थापित हुआ।
उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति है जिसकी मासिक आय 10 हजार है, अगर वो अपनी शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के बाद अपनी आय का कुछ हिस्सा अगर किसी सच्चे काम में लगाता है या स्वयं ही कोई नेक काम करने के लिए करता है तो अध्यात्म की नजर में वो सत्य में स्थापित है।
असत्य क्या है?
मनुष्य का अहम भाव ही असत्य है, हम सभी के भीतर मैं भाव होता है! जिसे हम अहम, अहंकार कहते हैं यह लगातार बेचैन रहता है और इस सांसारिक दुनिया में लगातार कुछ पाने की इच्छा रखता है, ताकि वह शांत, स्थिर और अपूर्ण से पूर्ण हो जाए।
पर मन इस संसार में जिन भी चीजों के पीछे भागता है उन चीजों को पाने से पूर्व वो अशांत रहता है और किसी तरह उन चीजों को वो पा भी ले तो भी कुछ देर बाद बेचैन हो जाता है! जो चीज़ मन को 10 वर्ष की उम्र् में सच लगती थी वही चीज़ 20 में आकर झूठी लगने लगती है!
इस तरह मन की इच्छाएं लगातार बदलती रहती हैं, मन चलायमान है, सदा परिवर्तनीय है, इधर उधर भटकता रहता है इसलिए मन को असत्य कहा गया है!
अहम और आत्मा में अन्तर
चूँकि हमने जाना अहम् भाव लगातार अशांत होकर कुछ पाने की इच्छा में रहता है जबकि आत्मा आनंदित है, पूर्ण है। आइये देखते हैं जो व्यक्ति अहम् भाव में और जो आत्मा में जीता है दोनों के जीवन में क्या अंतर होता है।
1. अहम् परेशान और अशांत रहता है जबकि आनंद ही आत्मा का स्वभाव है।
2. अहम् दूसरे के शोषण की भावना से काम करता है जबकि आत्मा प्रेम के भाव से।
3. इंसान अगर अहम् भाव में किसी से बातचीत करेगा तो इसलिए ताकि कोई लालच, इच्छा पूरी हो जाए। जबकि आत्मा से केन्द्रित व्यक्ति अपना प्रेम बांटने के लिए दूसरे से बात करेगा।
4. अहम् में जीने वाला व्यक्ति अपने लाभ के लिए दुसरे का भी नुकसान के लिए तैयार होता है। जबकि आत्मा में जीवन जीने वाला व्यक्ति प्रेम के खातिर नुकसान झेलने के लिए भी तैयार होगा।
5. अहम् भाव में इंसान दुसरे जीवों की हत्या करने के लिए भी तैयार रहेगा पर आत्मस्थ इंसान संवेदनशील होता है वो पशु हत्या को बिलकुल भी स्वीकार नहीं करता।
तो इस तरह देखा जाये तो आत्मा से जीने वाले व्यक्ति का मन सदा भरा रहता है, उसके मन में करुणा, प्रेम, त्याग होता है जबकि अहम भाव में जीने वाला व्यक्ति इन सुन्दर चीजों से वंचित हो जाता है!
जीवन का शाश्वत सत्य क्या है | जीवन का अंतिम सत्य क्या है?
जीवन का शाश्वत सत्य आत्मा है क्योंकि आत्मा अजर है, अमर है, अविनाशी है इसलिए हर काल में हर समय में आत्मा मौजूद है। इस पृथ्वी में,जीवन में सब कुछ समय के साथ मिट जाता है।
परन्तु आत्मा जिसे सबसे बड़ा सत्य भी कहा गया है वह अटल है, वह न कभी जन्मी थी न मरेगी, इंसान के शरीर और सभी भौतिक वस्तुओं का नाश होना एक दिन तय है लेकिन आत्मा सदैव है इसलिए इसे जीवन का शाश्वत सत्य कहा गया है।
सत्य की पहचान क्या है?
सत्य अज्ञेय है मन उसकी कल्पना नहीं कर सकता, विचार उसका किया नही जा सकता, इन्द्रियां उसे देख नहीं सकती और कोई अस्त्र उसे काट नही सकता। वो अजर है, अविनाशी है उसकी पहचान करनी है तो सिर्फ उसकी खोज में आगे बढ़ा जा सकता है।
सत्य ऐसे है जैसे आसमान जिसके करीब तो जाया जा सकता है, पर कभी भी उसे पाया नहीं जा सकता। ज्ञानियों ने हमेशा सत्य की अपेक्षा झूठ से बचने की सलाह दी। उन्होंने कहा सत्य को तो कभी कोई नहीं पकड पाया।
अगर तुम्हें सत्य में स्थापित होना है तो फिर जिन्दगी में जो कुछ भी झूठ है, जो कुछ भी गलत है, उसे त्यागते चलो और जो ठीक है उसके करीब आते चलो तुम उस परमात्मा के निकट आते जाओगे।
सत्य में कैसे रहते हैं?
अपने जीवन को सत्य के प्रति समर्पित करना ही सच्चाई में जीना है। एक व्यक्ति जिसके लिए सत्य से ऊपर कुछ नहीं, जिसके कर्म, जिसके विचार सब सत्य के आदेश पर होते हैं जान लीजिये वो सत्य में जी रहा है।
उदाहरण के लिए कोई जान गया है की वो बहुत लालची है, अब यदि वो ऐसे कर्म करने को तैयार हैं जिन्हें करने से लालच में कमी आती है तो जान लीजिये वो इन्सान सत्य में जी रहा है।
लेकिन दूसरी तरफ कोई इन्सान ये जानने के बाद भी की वो कितना घटिया जिन्दगी जी रहा है अगर वो सत्य की राह में आगे नहीं बढ़ रहा तो जान लीजिये वो असत्य में जी रहा है।
सत्य और धर्म में क्या अंतर है?
कहा जा सकता है सत्य एक ही है क्योंकि धर्म का उद्देश्य भी मनुष्य को सच्चाई के रास्ते पर लेकर चलना होता है।
सत्य शाश्वत है वो था है और रहेगा जबकि धर्म एक मनुष्य के लिए होता है जो उसे वह कार्य करने के लिए बाध्य करता है जो उस प्रतिपल करना सबसे आवश्यक है। सत्य को मनुष्य की गतिविधियों से कुछ फर्क नहीं पड़ता क्योंकी वो तो असीम है अनंत है।
उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता पर धर्म मनुष्य को सही कर्म करने का सन्देश देता है। धर्म का सम्बन्ध किसी पंथ या समुदाय से नहीं होता।
धर्म निरंतर मनुष्य को हर पल वह करने के लिए कहता है जिसे किया जाना जरूरी है, उदाहरण के लिए सड़क पर कोई व्यक्ति चोटिल हो गया है तो एक इंसान होने के नाते उसका फर्ज उसे हॉस्पिटल तक पहुँचाना ही उसका धर्म होता
✔ जिन्दगी में क्या करना चाहिए? जीवन में करने योग्य क्या है?
अंतिम शब्द
तो साथियों इस पोस्ट को पढने के बाद आपको सत्य क्या है? इस विषय पर पूर्ण जानकारी हासिल हुई होगी। अगर सत्य के सम्बन्ध में आपके और प्रश्न हैं तो कृपया कमेन्ट में बताएं साथ ही जानकारी को सांझा करना न भूलें!